भारत के शहर और वैश्विक मापदंड | EDITORIAL by Rakesh Dubey

नई दिल्ली। भारत का लिवेबिलिटी इंडेक्स लगातार फिसलता जा रहा है। जिससे भारत के शहरों का दुनिया के अच्छे शहरों की गिनती में कहीं गणना नही हो रही। भारत के शहर वैश्विक मापदन्डों में कहीं नहीं ठहरते बल्कि उनकी हालत पिछले वर्षों में और खराब हुई है। यहाँ अच्छे शहरों से आशय रहने लायक शहरों से है। एक संस्था है इकनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट। 

इकनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट के ग्लोबल लिवेबिलिटी इंडेक्स 2019 में दिल्ली इस साल छह स्थान फिसलकर 118वें नंबर पर और मुंबई दो मुकाम नीचे आकर 119वें नंबर पर पहुंच गया है। दिल्ली की रैंक इसलिए गिरी क्योंकि बीते एक साल में यहां अपराध और वायु प्रदूषण बढ़ा है। मुंबई को संस्कृति और पर्यावरण के क्षेत्र में पिछले साल से कमजोर आंका गया।इस पैमाने पर अन्य शहरों को रखे तो दशा और गंभीर दिखेगी। 

इकनॉमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट के इस सूचकांक में शहरों को पांच प्रमुख मानदंडों के आधार पर परखा जाता है- स्थिरता, संस्कृति व पर्यावरण, हेल्थकेयर, शिक्षा और इंफ्रास्ट्रक्चर। 140 देशों की इस सूची में ऑस्ट्रिया का वियना पहले नंबर पर है। शीर्ष 10 शहरों में ऑस्ट्रेलिया और कनाडा के तीन-तीन शहर शामिल हैं। सूची के आखिरी दस शहरों में बांग्लादेश की राजधानी ढाका नीचे से तीसरे यानी 138वें और पाकिस्तान का कराची 136वें नंबर पर है।

यह सूचकांक हमारी विकास प्रक्रिया पर एक बड़े प्रश्नचिह्न जैसा है। आधुनिक युग में विकास की एक बड़ी कसौटी शहर भी हैं। रहने लायक शहर एक देश की आर्थिक हैसियत के साथ-साथ सक्षम शासन तंत्र और उन्नत नागरिक समाज के प्रतीक भी होते हैं। अच्छे शहरीकरण के लिए यह जरूरी है कि वह योजनाबद्ध हो। उसमें नागरिकों को कामकाज की सुविधा और जीवन की तमाम सहूलियतें मिलें, जैसे बेहतर शिक्षा और स्वास्थ्य। आज के दौर में अच्छे स्वास्थ्य के लिए शहर का प्रदूषण मुक्त होना जरूरी है। साथ ही नागरिकों को पूर्ण सुरक्षा और अपनी मर्जी का जीवन जीने की आजादी मिलनी चाहिए।

भारत में शहरीकरण अनायास और अराजक तरीके से हुआ। ताबड़तोड़ तरीके से शहर बसे और अंधाधुंध तरीके से आबादी बढ़ी | विकास का विकेंद्रीकरण नहीं हो सका, इसलिए लोग रोजी-रोटी के लिए बड़े शहरों की तरफ भागे। इस तरह जनसंख्या का बोझ शहरों पर बढ़ता गया। अधोसंरचना नष्ट हुई प्राकृतिक संसाधन सिमटते गये। बढ़ती जनसंख्या के हिसाब से तमाम व्यवस्थाएं मजबूरी में बनती गईं, लेकिन उनमें सुरुचिपूर्ण दृष्टि का अभाव रहा। परिणाम तो तभी दिखने लगे थे स्पष्ट है, एक अच्छा शहर विकसित न हो पाने के पीछे विकासशील होने की मजबूरी भी काम कर रही थी। काम कर रही है और यह मजबूरी ऐसे ही काम करती रहेगी। 

एक तथ्य और सत्य है कि अगर हम दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चलना चाहते हैं और एक विकसित राष्ट्र होने का सपना देखते हैं तो हमें अपने शहरों को व्यवस्थित करना ही होगा, विदेशी पूंजी और प्रतिभा का लाभ तभी हम देश के लिए ले पाएंगे, अन्य देशों के छात्र, शिक्षक और तकनीकी विशेषज्ञ हमारे यहां आने को तभी प्रेरित होंगे। पिछले कुछ समय से स्मार्ट सिटी बनाने की बात चल रही है लेकिन अभी तक यह अवधारणाओं तक ही सीमित है। इसे हकीकत में बदलने में वक्त लगेगा, लेकिन अपने शहरों की हवा और माहौल सुधारने में हमें ढिलाई नहीं बरतनी चाहि, मशीनरी को समयबद्ध काम के लिए कसना होगा। 
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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