कमाल है! कोशिश तो दिग्विजय सिंह सरकार के दौरान भी विधानसभा में मीडिया को एक दायरे में सीमित करने की हुई थी लेकिन तब तत्कालीन विधानसभा अध्यक्ष श्रीयुत श्रीनिवास तिवारी की मौजूदगी में यह हो नहीं पाया था। अब जब किनारे के बहुमत से चल रही सरकार में रोज ही फजीहत हो रही है तब शायद दिग्विजय सिंह की सलाह व्हाया कमलनाथ विधानसभा अध्यक्ष माननीय नर्मदा प्रसाद प्रजापति के नीर क्षीर विवेक को भा गई। तो खबर यह है कि राज्य विधानसभा में ऐसा पहली बार हो रहा है, जब विधानसभा की कार्रवाही की रिपोर्टिंग करने के लिए मौजूद मीडिया को विधानसभा अध्यक्ष, मुख्यमंत्री और लाबी में पहुंचने पर प्रतिबंधित कर दिया गया है। अब मुख्यमंत्री कमलनाथ का तो राजनीति में अभ्युदय ही इमरजेंसी और प्रेस सेंसरशीप के दौर में हुआ था इसलिए उनकी आपातकालीन मानसिकता को समझा जा सकता है। राज्य मंत्रालय में भी अब मीडिया के लिए ढेर सारे बेरियर खड़े कर दिए गए हैं। यह सत्ता के मीडिया से भयभीत होने के लक्षण हैं।
पर मजेदार बात यह है कि मध्यप्रदेश की हुकूमत खबरनवीसों की उस नस्ल से भी डर रही है, जो मुख्यमंत्री, मंत्रियों और राजनेताओं के साथ सेल्फी लेने को जीवन की बड़ी उपलब्धि के तौर पर प्रचारित करते हैं! सरकार को उनसे भी खौफ हो गया है, जो खुद सरकार से खौफ के चलते मीडिया को मंडी में तब्दील कर चुके हैं! विधानसभा में मीडिया की स्वतंत्र चहलकदमी पर लगी रोक से वाकई हैरत हो रही है। सवाल उठ रहा है कि वास्तव में पत्रकारिता करने वालों के किए की सजा समूचे मीडिया को क्यों दे दी गयी? विधानसभा में पत्रकार अब हर उस जगह नहीं जा सकता, जिस-जिस जगह जाने की उसे मिले कार्ड में अनुमति दी जाती है। गनीमत है कि पत्रकारों के कक्ष और दीर्घा को इस प्रतिबंध से मुक्त रखा गया है। वरना तो जिस तरह के तेवर दिख रहे हैं, उससे यही डर लगता है कि अगला कदम विधानसभा के परिसर में भी मीडिया की मौजूदगी पर रोक वाला न हो जाए। हुकूमत की ताकत के चलते यूं ही मीडिया के कई अंग पक्षघात के शिकार हो चुके हैं। हालांकि कुछ 'मट्ठर' टाईप पत्रकार हर दौर में ऐसे होते हैं, जो सियासत से नहीं डरते। सच को सच लिखते हैं। गलत को गलत बताते हैं। जाहिर है कि ऐसे बची खुची पत्रकारों की ब्रीड किसी भी शासन व्यवस्था की आंख की किरकिरी बन सकती हैं। सत्ता ऐसे लोगों से डरे। तो यह समझ आता है। किंतु ऐसे जिंदा लोगों के साथ-साथ ही 'मरे को भी मारने' की बात गले से नीचे नहीं उतर पा रही है।
और ऐसा कांग्रेस के शासनकाल मेंं हो रहा है। वह कांग्रेस, जिसने संसद के गठन के साथ ही यह व्यवस्था संचालित की थी कि संसद के सेंट्रल हाल में भी तीन वरिष्ठ पत्रकारों का प्रवेश होने दिया जाए। वह भी ऐसे पत्रकार, जिनकी बेधड़क, ईमानदार और निष्पक्ष पत्रकारिता पर कभी भी सवलिया निशान नहीं लगे। पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने यह व्यवस्था लागू की थी। इंदिरा गांधी के आखिरी कार्यकाल तक ऐसा निर्बाध रूप से चला। भारी बहुमत से जीती राजीव गांधी की सरकार ने इस व्यवस्था को खत्म किया था। संसद के सेंट्रल हाल में किसी भी गैर सांसद को प्रवेश की अनुमति उसके नियमों में नहीं है। मीडिया और सांसदों के बीच संवाद के तौर पर इस व्यवस्था को नेहरूजी ने बनाया था। लेकिन इंदिरा जी के तानाशाही दौर और संजय गांधी के सान्निध्य में राजनीति का ककहरा सीखने वाले कमलनाथ के शासनकाल में पत्रकारों पर इस तरह का अंकुश लगाया जा रहा है तो ज्यादा आश्चर्य नहीं होना चाहिए। बता दें कि संसद के सेंट्रल हाल मेंं मीडिया से संवाद की लौ जलाये रखने की खातिर इस जगह पर सबसे पहले देश के वरिष्ठ पत्रकार निखिल चक्रवर्ती (मेन स्ट्रीम के संपादक) और दुर्गादास (कर्जन टू नेहरू के लेखक) सहित एक अन्य वरिष्ठ पत्रकार को प्रवेश का हक प्रदान किया गया था।
पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने भी अपने कार्यकाल में ऐसी कोशिश की थी जो आज कमलनाथ की सरकार में संभव हो गया। इसका तब कुछ वरिष्ठ पत्रकारों ने विरोध किया था। श्रीनिवास तिवारी के सामने संसद के सेंट्रल हाल का उदाहरण सामने रख कर इस व्यवस्था को लागू होने से रोका गया था। बाद में दिग्विजय सिंह ने ही श्रीनिवास तिवारी को दिल्ली में तत्कालीन लोकसभा महासचिव से मिली जानकारी के आधार पर बताया था कि संसद के सेंट्रल हाल में सीमित पत्रकारों के प्रवेश को भी रोक दिया गया है। जाहिर है श्रीनिवास तिवारी ने बाद में ऐसी कोशिश नहीं की और ना ही दिग्विजय सिंह ने इस पर जोर दिया। लेकिन अब मामला उलटा दिख रहा है। तो मीडिया भला क्या करे? विधानसभा में अध्यक्ष, मुख्यमंत्री, नेता प्रतिपक्ष, किसी मंत्री या विधायक के कथन पर भ्रम की स्थिति में वह कैसे खबर बनाये? पहले तो संभव था कि उनके कक्ष में जाकर बात कर ली जाए। अब ऐसा नहीं हो सकेगा। सत्ता-विपक्ष और मीडिया के बीच संवाद की इस जीवित प्रक्रिया को बाधित करने का भला क्या औचित्य हो सकता है? असल में विधानसभा लोकतंत्र का मंदिर है। वहां की सारी कार्यवाही पारदर्शी है। इसलिए ही दर्शक दिर्धा का प्रावधान है। जनप्रतिनिधि जो कानून बना रहे हैं वे जनता की मौजूदगी में ही हो रहा है। यह कानून बनाने की प्रक्रिया में जनता की भागीदारी है। विधानसभा की कार्यवाही कोई छिपी हुई कार्यवाही नहीं बल्कि वो स्वतंत्र, निष्पक्ष और निभीक होती है। वहां जनप्रतिनिधि जो शब्द बोलते हैं उन्हें किसी कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती है। पत्रकार दिर्धा का प्रावधान यह है कि सदन में जो भी कार्यवाही होगी उसे रिपोर्ट किया जाएगा। यह रिपोर्ट करने वाले पर छोड़ दिया गया है कि वो अनुचित या गलत रिपोर्ट नहीं करेगा, जो हुआ है उसे सही बताएगा। पत्रकारों का अध्यक्ष, मुख्यमंत्री, नेता प्रतिपक्ष, मंत्री या विधायकों से मिलने का मतलब आपसी संवाद है, ताकि जहां कोई संदेह हो, उसे संबंधित से मिल कर दूर कर लिया जाए। अब यह गजब है कि विधानसभा पत्रकारों को रिपोर्ट करने के लिए बुला भी रही है और संवाद के रास्तों को जाम भी कर रही है। मुझे लगता है कि यह लोकतंत्र की भावना के विपरीत है।
दंग कर देने वाली बात यह कि जिस भाजपा को जनसंघ के जिस दौर से कभी मीडिया से परहेज करने वाला माना जाता था, उसके डेढ़ दशक के शासनकाल में प्रदेश में ऐसा एक भी ऐसा घटनाक्रम देखने को नहीं मिला। एक हकीकत यह भी है कि कथित तौर पर जो राजनेता मीडिया फे्रंडली होने का दम भरते हैं, मंत्री या पद पर आने के बाद कन्नी काटने के रास्ते वे भी ढुंढ़ते रहते हैं। मामला लोकतंत्र के मंदिर का है, इसलिए विधानसभा अध्यक्ष के पद के प्रति समस्त सम्मान के साथ यह सवाल तो उठाया ही जा सकता है कि क्या नर्मदा प्रसाद प्रजापति ने पक्ष एवं विपक्ष, दोनों की सलाह के बाद यह कदम उठाया है? इससे भी बड़ा सवाल यह कि क्या यह कदम उचित है? वह भी उस स्थान पर जहां दर्शक दीर्घा के जरिए आम जनता को भी कानून बनने की प्रक्रिया से जोड़ा जाता है। जहां के क्रियाकलापों की रिपोर्टिंग जनता तक पहुंचाने के लिए मीडिया को आमंत्रित किया जाता है? यदि उसी मीडिया के पांव में बेडिय़ां पहना दी जाएंगी तो आप लोकतंत्र को कौन सी नई दिशा दे रहे हैं?
लेखक श्री प्रकाश भटनागर भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार हैं। साप्ताहिक समाचार पत्र एलएन स्टार में बतौर संपादक सेवाएं दे रहे हैं।