वंदेमातरम्...वंदेमातरम् ! | EDITORIAL by Rakesh Dubey

उत्तर प्रदेश की संभल लोकसभा सीट से निर्वाचित सपा सांसद शफीकुर्रहमान बर्क द्वारा राष्ट्र गीत 'वंदे मातरम' को लेकर की गई टिप्पणी को लेकर सोशल मीडिया में बवाल मचा हुआ है | इस सारे हंगामे को में दोनों ओर के पक्षधर यह भूल रहे है की “ जिस संविधान {आइन } की शपथ ली गई है “वन्दे मातरम” तो उस संविधान का हिस्सा है | शपथ लेने के बाद बर्क ने भी कहा, 'भारत का संविधान जिंदाबाद' | भारतीय संविधान  में 'वंदेमातरम्' को राष्ट्रगान  'जन-गण-मन' के समकक्ष  राष्ट्रगीत का सम्मान प्राप्त है। 24 जनवरी, 1950 को संविधान सभा ने 'वन्देमातरम्' गीत को देश का राष्ट्रगीत घोषित करने का निर्णय लिया था।

संविधान सभा में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने वंदेमातरम् की महत्ता को ध्यान में रखते हुए 'राष्ट्रगीत' के रूप में इसकी घोषणा की थी  । यह गीत १८९६  में कोलकाता में आयोजित कांग्रेस के अधिवेशन में पहली बार गाया गया था ।इस गीत के भाव ऐसे है कि राष्ट्रऋषि   बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय  का लिखा 'वंदेमातरम्' स्वतंत्रता सेनानियों और क्रांतिवीरों का मंत्र बन गया था और आज भी उसकी शक्ति से किसी को गुरेज़ नहीं होना चाहिए । १९०५  में जब अंग्रेज बंगाल के विभाजन का षड्यंत्र रच रहे थे, तब वंदेमातरम् ही इस विभाजन और ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध बुलंद नारा बन गया था। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने स्वयं कई सभाओं में वंदेमातरम् गाकर ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध जन सामान्य को आंदोलित किया।वंदेमातरम् कोई सामान्य गीत नहीं है, यह आजादी का गीत है। यह क्रांति का नारा है। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में इसका बहुत बड़ा योगदान है। किसी गीत का ऐसा गौरवपूर्ण इतिहास होने के बाद भी उसे यथोचित सम्मान नहीं देना, हमारी निष्ठाओं को उजागर करता है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि राष्ट्रीय प्रश्नों पर भी क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ और संकीर्ण मानसिकता हावी हो जाती है।

यह भी किसी दुर्भाग्य से कम नहीं है कि संविधान में राष्ट्रगीत का दर्जा प्राप्त होने के बाद भी वंदेमातरम् को हकीकत में समान दृष्टि से सम्मान नहीं दिया जाता। वंदेमातरम् को सम्मान देने का जब भी प्रश्न उठाया जाता है, सांप्रदायिक राजनीति शुरू हो जाती है। मद्रास उच्च न्यायालय ने तमिलनाडु के स्कूल, सरकार और निजी कार्यालयों में वंदेमातरम् गाना अनिवार्य कर दिया है। उच्च न्यायालय के इस निर्णय ने, उपेक्षा के शिकार राष्ट्रगीत वंदेमातरम् की सार्थकता को महत्व दिया है |संसद में संविधान की कसम खाने वालों और संविधान का सम्मान करने वालों को न्यायालय के इस निर्णय का खुलकर स्वागत करना चाहिए। वैसे भी न्यायालय ने अपनी ओर से अलग से कुछ विशेष नहीं कहा है, बल्कि राष्ट्रगीत के लिए यह सम्मान संविधान में ही वर्णित है। जिन लोगों को वंदेमातरम् का विरोध करना है तो उन्हें यह भी स्वीकार कर लेना चाहिए कि भारत के संविधान में उनकी निष्ठाएं नहीं है।

मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एमवी मुरलीधरन ने अपने निर्णय में कहा था कि विद्यालयों में वंदेमातरम् सप्ताह में कम से कम दो बार और कार्यालयों में महीने में कम से कम एक बार राष्ट्रगीत गाया जाना चाहिए।न्यायालय ने अपने निर्णय को विवाद से बचाने के लिए कह दिया है कि 'यदि किसी व्यक्ति या संस्थान को राष्ट्रगीत गाने में किसी प्रकार की समस्या है, तो उसे जबरन गाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। बशर्ते उनके पास राष्ट्रगीत न गाने के लिए पुख्ता वजह हो।'

न्यायालय की इस टिप्पणी के बाद प्रश्न उत्पन्न होता है कि आखिर किसे वंदेमातरम् के गायन से आपत्ति हो सकती है? ऐसा कौन-सा कारण है कि राष्ट्रगीत के गायन में समस्या उत्पन्न होती है? इस तरह का प्रश्न ही अपने आप में राष्ट्रीय प्रतीक का अपमान करने वाला है।किसी भी नागरिक के लिए राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान करना उसका पहला कर्तव्य होता है। अपने देश और संविधान के प्रति सम्मान का भाव रखने वाला नागरिक उनकी अवहेलना नहीं कर सकता। किंतु यह सब हो रहा है। देश में ऐसी स्थितियाँ बनाने के पीछे किसकी जिम्मेदारी माननी चाहिए। क्योंकि, प्रारंभ में वंदेमातरम् को लेकर कोई आपत्ति किसी को नहीं थी।स्वतंत्रता संग्राम में कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों से लड़ रहे मुसलमानों ने भी वंदेमातरम् का स्वर ऊंचा किया था। फिर क्या परिस्थितियाँ उत्पन्न हुईं कि मुस्लिम संप्रदाय वंदेमातरम् से दूर होता गया? दरअसल, इसके लिए हमारे नेतृत्व का लुंज-पुंज रवैया जिम्मेदार है।जहाँ तक उर्दू का प्रश्न है १९३१ में लाहौर से उर्दू अख़बार “वन्दे मातरम” का प्रकाशन होता था और उसमे काम करने वाले बोलते ही नहीं “वंदेमातरम्” लिखते भी थे |

विवाद तो १९२३ में काकीनाड कांग्रेस अधिवेशन  में मौलाना अहमद अली के विरोध से शुरू हुआ  अगर उसे महत्त्व नहीं दिया गया होता तो आज मुस्लिम समाज राष्ट्रगान की तरह राष्ट्रगीत को भी बिना किसी झिझक के सम्मान दे रहा होता। तत्समय भी हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के हिमालय पं. विष्णु दिगम्बर पलुस्कर ने टोका-टाकी के बीच वंदेमातरम् का सम्मान रखते हुए अपना गायन जारी रखा आज भी यह परम्परा जारी है ।राजनीति को मजहबी कारण बनाना या बताना ठीक नहीं |
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703 
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