मतदाता बनें, किसी योद्धा के सिपाही या हथियार नही | EDITORIAL by Rakesh Dubey

चुनाव को धर्मयुद्ध की संज्ञा देकर आज कुछ वोट लिए जा सकते हैं। जरा यह भी सोचिये, इस धर्मयुद्ध से हासिल क्या होगा ? भविष्य में इससे समाज कहाँ कहाँ से टूटेगा,इस कथित धर्मयुद्ध में जीतने वाले देश को  संघीय ढांचे और व्यवस्था से बाहर ले जा सकेंगे ? अगर चुनाव में किसी एक गठ्बन्धन को बहुमत न मिला तो उसके द्वारा दिखाए गये सब्जबाग़ कैसे पूरे होंगे ? अनेकों सवाल है जिनका हल खोजने के स्थान पर राजनीतिक दल सस्ते जुमले उछाल रहे है। इस मदारीपण में सब शामिल है। इधर और उधर दोनों तरफ से गम्भीरता की जगह उन हथकंडो ने ले ली है जिनका प्रजातंत्र से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है।

चुनाव को धर्मयुद्ध कहने वालों को सोचना चाहिए, कि वे यह कथित धर्मयुद्ध वे किसके खिलाफ लड़ रहे है। इनका ज्ञान अधकचरा है। जिस धर्मग्रन्थ से यह शब्द चुराया है, उसे एक बार ठीक से पलट लें। पहले अपने आप से संघर्ष कर निर्मल बने। गेरुए या सफेद वस्त्र के भीतर काया छिप सकती है, भाव नही। इस चुनाव में दोनों वस्त्रों में छिपी काया निर्मल नहीं है, निर्मलता का ढोंग कर रही है। सफेद वस्त्रों में लिपटी काया में अनेक दोष हैं, तो गेरुए वस्त्र में लिपटी काया भी निर्विकार नहीं है। देश को वे निर्विकार सेवक चाहिए जो राष्ट्र हित में संसद चला सकें।

अभी तो पंचायत से संसद तक “मुल्क के खिदमतगार” की जगह “मुल्क के मालिक” चुने जा रहे है। आज़ादी के पहले मुल्क रियासतों में बंटा हुआ था। अब अप्रत्यक्ष रूप से रियासते बन और बंट गई हैं। नकली राजा प्रजा को असली राजाओं से ज्यादा रौंद रहे हैं। आज़ादी के पूर्व राजाओं ने नागरिकों के लिए कुएं, बावड़ी, पाठशाला, अस्पताल और उच्च शिक्षा के केंद्र अपने कोष से बनवाये। अब तो ऐन-केन प्रकारेण चुनाव जीत नागरिकों से वसूले कर को, बपौती समझ कर लूटने और लुटाने का खेल चलता है। दुर्भाग्य यह है कि अपने को वीतरागी कहने वाले गेरुए वस्त्र में ढंके संन्यासी भी इसमें अपने हाथ काले करने में गुरेज़ नहीं कर रहे हैं। चुनाव धर्मयुद्ध नहीं, कर्म युद्ध है इसमें कर्मशील और कर्मठ योद्धाओं की जरूरत है भ्रष्ट और गाल बजाने वालों के कारण देश अवनति को जा रहा है।

यह लोकसभा चुनाव बहुत ही महत्वपूर्ण साबित होने वाला है। सत्ताधारी पार्टी और प्रतिपक्ष दोनों ही  जीतने लायक मुद्दों की तलाश में आज भी लगे हुए है। चुनाव के ठीक पहले पुलवामा और बालाकोट की घटनाएं हो गईं। सत्ताधारी पार्टी के कुछ नेता उसी को मुद्दा बनाने की कोशिश करने लगे। प्रतिपक्ष तो अवमानना की हद तक पार कर गया। कुछ राज्यों में विपक्षी पार्टियों का जो गठबंधन जरुर हो गया, वह भी कुर्सी से आगे कोई दिशा सोच ही नहीं पा  रहा है, तो देश को देगा क्या? पड़ोसी देश पाकिस्तान से सबक लें जो आज पूरी तरह से आतंकवाद की चपेट में हैं। वहां भी धार्मिक  तुष्टीकरण के लिए मुल्लाओं की शरण में भुट्टो और याह्या खान चले गए थे और उसी के चलते वहां धार्मिक गुटों ने अपनी निजी सेनाएं बना लीं। शुरू में तो इन आतंकवादियों का इस्तेमाल भारत और अफगानिस्तान के खिलाफ किया गया लेकिन बाद में आतंकवाद का यह भस्मासुर पाकिस्तान को ही निगल जाने को व्याकुल है। हर “ धर्मयुद्ध” के यही नतीजे निकलते हैं।

वैसे  भी प्रजातंत्र के लिए यह बहुत अच्छे संकेत नहीं हैं। आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता और आतंकवाद को राजनीतिक हथियार बनाने वाले व्यक्ति का उद्देश्य हमेशा राजनीतिक होता है और वह भोले भाले लोगों को अपने जाल में फंसाता है। इसलिए आतंकवाद का विरोध करना हर सभ्य नागरिक का कर्तव्य है। आतंकवाद को किसी धर्म से जोड़ने की कोशिश करना तो चरम मूर्खता है। दुर्भाग्य भारत में  आतंकवाद अपने आप में एक राजनीतिक विचारधारा बनती जा रही है। इसे हर हाल में रोकना होगा। 2019 में इस तरकीब से ये जीत जाए या वो जीत जाएँ, हारेगा  देश और आप हम। हम तभी जीतेंगे जब चुनाव में  सटीक मतदान करें। मतदाता बने किसी योद्धा के सिपाही या हथियार  नहीं।
देश और मध्यप्रदेश की बड़ी खबरें MOBILE APP DOWNLOAD करने के लिए (यहां क्लिक करेंया फिर प्ले स्टोर में सर्च करें bhopalsamachar.com
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
पूर्व में प्रकाशित लेख पढ़ने के लिए यहां क्लिक कीजिए
आप हमें ट्विटर और फ़ेसबुक पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Check Now
Accept !