आपदाएं तो हम खुद बुलाते हैं | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। हर मौसम कुछ न उलट-पुलट करता है। उत्तराखंड में बारिश ने कहर बरपा दिया है। मैदानी इलाकों में बमुश्किल तापमान कम होना शुरू हुआ है। हम सारा दोष प्राकृतिक आपदा कह कर धरती के सर मढ़ देते हैं, सवाल यह है कि यह धरती हमें क्या नहीं देती ? हम इससे जितना ले रहे हैं क्या वह उचित है? आज धरती की कुल आबादी लगभग 8 अरब है। कुछ संसाधनों पर दबाव बड़ रहा है। बढ़ती जनसंख्या पहली और दूसरी चुनौती है- जलवायु परिवर्तन के असर को कम करना। चिंता की बात यह है कि मानव और प्रकृति का सम्बन्ध विध्वंसात्मक हो रहा है, इस सम्बन्ध को कैसे परस्पर बनाए यह सबसे महत्पूर्ण सवाल है।

अप्रैल से जून मध्य तक बड़ा फायर सीजन होता है। मैदानों में नरवाई और पहाड़ों में  लोग घास के मैदानों में आग लगा देते हैं, यह आग जंगल में फैल जाती है। इससे जंगली जानवरों के आशियाने खत्म हो जाते हैं। उनको भोजन और आग से बचने के के साथ पानी की तलाश में जंगल से आबादी की ओर रूख करना होता है। आबादी क्षेत्र में उनको भोजन और सुरक्षा दोनों मिल जाती है। रोज कहीं न कहीं विरोध के स्वर बुलंद हो रहे हैं। लोगों की मांग है जानवरों का कुछ इंतजाम किया जाए, उनको आबादी क्षेत्र में घुसने से रोका जाये। लेकिन यही बड़ी आबादी खेतों और जंगलों में लगने वाली आग का विरोध नहीं करती। इस आबादी के बड़े हिस्से को जानवरों से परेशानी है, परन्तु अपने क्षेत्र में प्रस्तावित आल वेदर रोड से इसे कोई आपत्ति नहीं है।

अपने जबड़े में बच्चे को दबाये आदमखोर जानवरों ने कभी नहीं सोचा होगा कि उसे एक दिन आदमी के बच्चे का शिकार करना होगा। । जंगल के अपने नियम- कायदे होते हैं। उन नियमों पर जंगल कितने ही जीवों को पनाह देता है। जितना घना जंगल उतनी ही हरियाली, नमी, पानी की सुलभता । एक समय सभी वनवासी एक दूसरे पर निर्भर रहने की प्रतिबद्धता लिए हुए खुश रहते थे। वह कौन था जिसने जंगल की शांत वादियों में विकास की अराजक चहलकदमी शुरू कर दी ? वहां मशीने पहंचा दी, सड़कें बना दी, खदानें बना ली, जानवरों की प्रदर्शनी लगा दी। मदमस्त बहती नदी को कैद कर लिया।

तो समाधान क्या समाधान भी कई स्तरों में होगा। सरकार प्रदत समाधान जिसमें तमाम तरह की विकास नीतियां और सम्बन्धित प्रशासकीय इंतजाम शामिल हैं। सतत विकास केकुछ  लक्ष्य है वे इन्ही प्रयासों की ओर इशारा करते  है जिसके अनुसार जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभावों का मुकाबला करने से लेकर राष्ट्रीय नीतियों, योजनाओं में जलवायु परिवर्तन के सभी कारणों और उसे दूर करने के उपायों पर ज़ोर दिया गया हैं तथा उस समस्या से निपटने के लिए सभी स्तरों पर शिक्षा तथा अन्य माध्यमों से जागरुकता फैलाकर पर्यावरण को संरक्षित करने का प्रयास निंरतर किया जाए ताकि जलवायु परिवर्तन की समस्या से जूझ रहे संपूर्ण संसार को समय रहते काल के गाल में समाने से बचाया जा सके। 

याद रहे जब सरकारें असफल होती हैं विकास करने में तो लोग रचनात्मक विकास की ओर रुख करते हैं। जैसे आपसी सहयोग से स्वैच्छिक प्रयासों से गांव में रास्तों का निर्माण, सड़क निर्माण, पीने के लिए पेयजल का इंतजाम करना आदि। इस व्यवस्था को बनाये रखने के लिए बेहतर समझ के साथ नीतियां बनानी होंगी और जनता तक उन नीतियों को ले जाना होगा।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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