
प्रदेश में चिकित्सा शिक्षा पर एक दृष्टि डाले तो 1946 में राज्य में पहला सरकारी चिकित्सा महाविद्यालय ग्वालियर में खोला गया था। अब तक सरकार 6 चिकित्सा महाविद्यालय खोल चुकी और कुछ और खोलने जा रही है। इन महाविद्यालयों में 800 सीटें है। इसके विपरीत पिछले कुछ सालों में रसूखदार लोगों के संरक्षण / भागीदारी में 8 निजी चिकित्सा महाविद्यालय खुलवाये गये जिनमे 1200 सीटें हैं। इन 2000 सीटों पर प्रवेश की मारमारी ने ही प्रदेश में व्यापमं जैसे घोटाले को जन्म दिया है। दंत चिकित्सा महाविद्यालय खोलना, उसमें प्रवेश और परीक्षा की कहानी किसी तिलिस्म से कम नहीं है। अंदाज़ इसी बात से लगाया जा सकता है कि सरकार 1961 के बाद 2018 में दूसरे दंत चिकित्सा महाविद्यालय की सोच रही है। इसके विपरीत निजी क्षेत्र में 14 दंत चिकित्सा महाविद्यालय चल रहे हैं। सरकार के पास दंत चिकित्सा में स्नातक की 40 और स्नातकोत्तर की 10 सीटें है और निजी क्षेत्र में स्नातक की 1320 और स्नातकोत्तर डिग्री हेतु 225 सीटें हैं।
मूल प्रश्न सरकार पिछले सालों में सरकारी दंत चिकित्सा महाविद्यालय क्यों नहीं खोलना चाहती थी और अब क्यों खोलने की इच्छुक है ? स्वशासी होने के बावजूद सरकारी खाते से सुरक्षित वेतन, पदोन्नति और तबादले का डर नहीं जैसी नौकरी में कौन नहीं आना चाहेगा और पालक रसूखदार हो तो कहना ही क्या।
वैसे प्रदेश में दंत चिकित्सकों के सामने रोजगार का संकट है। विभागीय विशेषग्य निजी चिकित्सा महाविद्यालयों से उत्तीर्ण छात्रों में गुणवत्ता में कमी मानते हैं। भारी-भरकम फ़ीस देने के बाद भी ये छात्र वो सब नहीं सीख पाते जिसे दंत चिकित्सा कौशल कहा जा सके। प्रदेश के एक मात्र शासकीय दंत चिकित्सा महाविद्यालय से उत्तीर्ण छात्रों का रोजगार प्रतिशत और गुणवत्ता तुलनात्मक रूप से बेहतर है। अब निजी दंत चिकित्सा महाविद्यालय से उत्तीर्ण सारे दंत चिकित्सक कहाँ जाएँ ? और पालक रसूखदार हो तो और भी कष्ट। ऐसे में एक मात्र रास्ता और और सरकारी दंत चिकित्सा महविद्यालय ही है। 1961 के बाद सरकार को अब यह शिगूफा इसी कारण सूझा है की 14 रसूखदार परिवारों के स्नातकोत्तर दंत चिकित्सकों को तत्काल सुरक्षित रोजगार उपलब्ध कराना है। अभी नही तो कभी नहीं की तर्ज़ पर। चुनाव सर पर है, लौटे तो ठीक, नहीं तो प्रस्तावित योजना में सन्तान को सुरक्षित रोजागर तो मिल ही जायेगा।
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श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।