राकेश दुबे@प्रतिदिन। कोई इसका कुछ भी अर्थ निकाले कांग्रेस के लिए कुछ भी करने वालों के लिए इस बात का व्यापक अर्थ है कि 2019 में पार्टी की कमान राहुल गाँधी के हाथ में ही रहेगी। ऐसे लोगों में कांग्रेस कार्यकर्ताओं के अलावा प्रजातंत्र के हिमायती वे लोग भी है जो देश की राजनीति को एकांगी होने का खतरा महसूस कर रहे हैं। कर्नाटक विधानसभा चुनावों के लिए जारी प्रचार युद्ध के दौरान ही कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने 2019 के चुनावी महासमर को लेकर साफ़ कर दिया कि 2019 के चुनाव में वे ही कांग्रेस का चेहरा होंगे। उन्होंने साफ़ किया कि अगर 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी होकर उभरती है तो वह प्रधानमंत्री बनने के लिए तैयार हैं।
इसके अनेक अर्थ हैं, पहली नजर में यह अत्यंत सामान्य बयान लग सकता है, लेकिन कांग्रेस और खासकर राहुल गांधी के संदर्भ में इसकी अहमियत बहुत अलग है। कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष और राहुल गांधी की मां सोनिया गांधी ने 2004 के लोकसभा चुनावों में पार्टी की अगुआई करने और उसे अप्रत्याशित जीत दिलाने के बाद जिस तरह से प्रधानमंत्री पद डॉ. मनमोहन सिंह को सौंप दिया, वह लोग भूले नहीं हैं। राहुल गांधी भी न केवल मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री पद स्वीकारने में हिचकते रहे, बल्कि उनके पार्टी की कमान संभालने को लेकर भी कांग्रेस में लंबे समय तक कशमकश चलती रही। इस बार ऐसा कुछ नहीं होगा, विदेशी मूल का मुद्दा अब काम नहीं करेगा। इसके साथ ही राहुल गाँधी को लोकसभा चुनाव के पहले हर परिस्थिति में यह विश्वास दिलाना होगा कि अगर कांग्रेस की सरकार बनी तो वो अपनी पूर्व सरकारों से इतर होगी। अब वायदों पर सरकार बनने के दिन लद गये हैं।
चूँकि गाँधी परिवार के दो अहम सदस्य प्रधानमंत्री पद पर रहते हुए अपनी जान गंवा चुके हैं। ऐसे में राहुल गांधी के नाम के साथ चलती इन अनिश्चितताओं के तरह-तरह के मायने निकाले जाने स्वाभाविक हैं। मौजूदा राजनीतिक हालात में ये तमाम मायने कांग्रेस की राजनीति को कमजोर कर रहे थे। न केवल बीजेपी वरन अन्य दलों को यह कहने का मौका मिल रहा था कि राहुल गांधी राजनीति में कच्चे हैं, इसके लायक नहीं हैं, बल्कि गैर कांग्रेस-गैर बीजेपी पार्टियों का तीसरा मोर्चा बनाने की इच्छुक शक्तियों को भी यह असमंजस ताकत दे रहा था। अपने इस स्पष्ट बयान के जरिए राहुल ने न केवल कांग्रेस कार्यकर्ताओं के मन की दुविधा दूर की है बल्कि अपने विरोधियों को भी संदेश दिया है कि वे उन्हें हल्के में लेना उचित नहीं है। इससे उभरते संकेत कुछ नई परिभाषा तय करेंगे।
यह भी साफ़ बात है कि किसी एक राज्य चुनावी लड़ाई से इस देश का सम्पूर्ण चित्र नहीं उभरता है परन्तु इस तरह की घोषणाओं का सांकेतिक महत्व ही होता है। सब कुछ आखिरकार इसी बात पर तो निर्भर करेगा कि 2019 में कितनी सीटें किसके खाते में आती हैं। अगर सीटें ही कम आएंगी तो राहुल के इस बयान का कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। अगर सीटें ज्यादा आईं तब क्या होगा? इस सवाल पर अब कोई असमंजस नहीं रह गया है और यह बात कांग्रेस की वर्तमान राजनीति को, निश्चित रूप से ताकत देगी। हो सकता है,देश को कुछ नया देखने को मिले।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।