कब तक सडक पर फेंकते रहेंगे कृषि उत्पाद ? | EDITORIAL

राकेश दुबे@प्रतिदिन। सब्जियां उगाने वाले किसानों को नाममात्र का प्रतिफल मिलने की वजह से अपनी फसलें नष्ट करने या सड़कों पर फेंक देने के बारे में आ रहीं मीडिया रिपोर्ट कृषि मूल्यों के प्रबंधन पर एक असहज टिप्पणी करती हैं। इन किसानों में टमाटर, बंदगोभी, फूलगोभी, लहसुन,  आदि उगाने वाले किसान हैं। इसके पहले आलू और प्याज की फसलों को भी ऐसी ही हालत से गुजरना पड़ा है। पिछले साल सड़कों पर दूध बहा देने वाले महाराष्ट्र के दुग्ध उत्पादक किसानों ने अब शहरी इलाकों में दूध की मुफ्त आपूर्ति शुरू कर दी है ताकि इसकी नाकाफी कीमतों की तरफ सरकार का ध्यान आकृष्टï किया जा सके। हालत यह है कि किसानों को अपनी उत्पादन लागत से भी कम मूल्य मिल रहा है। ऐसे में आश्चर्य नहीं है कि सौ से अधिक किसान संगठनों के मंच राष्ट्रीय किसान महासंघ ने 1 जून से दस दिनों तक के लिए शहरी क्षेत्रों में सब्जियों, दूध और अन्य कृषि उत्पादों की आपूर्ति रोक देने की धमकी दी है। उनका कहना है कि सरकार किसानों की कीमत पर महंगाई पर काबू पाने की नीति अपनाए हुए है।

देखा जाये तो असली कारण फसलों की बंपर पैदावार न होकर फसल तैयार होने के बाद कृषि उत्पादों का खराब प्रबंधन का  होना है। उत्पादों के भंडारण, प्रसंस्करण, मूल्य-वद्र्धन और उनकी उपयोग अवधि बढ़ाने से संबंधित सुविधाओं की कमी, खराब एवं असरहीन मार्केटिंग, उत्पादन एवं मांग के बीच तालमेल की कमी, उत्पादकों, रिटेलरों और उपभोक्ताओं के बीच संपर्क-सूत्र न होना और बाजार एïवं मूल्य नियतीकरण तरीकों के बारे में किसानों को जरूरी जानकारी न होना बड़ी समस्याएं हैं। ऐसी स्थिति में कृषि उपज का समुचित मूल्य तय करने के लिए इसे समग्र रूप में देखने और बहुस्तरीय नजरिया अपनाने की जरूरत है। सरकार अधिक समय तक उपयोग में लाए जा सकने वाले कृषि जिंसों की कीमतों को स्थिर रखने के लिए अलग-अलग तरीके अपनाती है लेकिन जल्दी नष्ट हो जाने वाले उत्पादों के मामले में यह तरीका निष्प्रभावी साबित हो सकता है। मसलन, खरीद आधारित मूल्य समर्थन टमाटर या ताजा सब्जियों के लिए कोई विकल्प नहीं हो सकता है। जिस बहुस्तरीय रणनीति की जरूरत है उसमें कृषि उपजों के लिए वैज्ञानिक एवं जिंस-केंद्रित भंडारण सुविधा लागू करना भी शामिल है ताकि उन उत्पादों को कम मांग वाले सीजन में बिक्री के लिए सुरक्षित रखा जा सके। प्रसंस्करण एवं मूल्य-वद्र्धन के जरिये अतिरिक्त उपज का अधिक इस्तेमाल किया जाए और वैकल्पिक मार्केटिंग आउटलेट खोले जाएं।  

टमाटर, लहसुन, प्याज और ऐसे ही अन्य उत्पादों को आसानी से संरक्षित किया जा सकता है। उपज वाले क्षेत्रों में ही स्थित लघु-स्तरीय उद्यम सरकार द्वारा प्रोत्साहित फूड पार्कों की तुलना में अधिक कारगर साबित होंगे। संगठित खुदरा विक्रेताओं के उभार से भी किसानों के लिए अपनी उपज की बेहतर कीमत हासिल कर पाना संभव हो सकता है। सहकारी संस्थाओं या किसानों की भागीदारी वाली कंपनियों को प्रोत्साहन देने से भी कृषि उत्पादों की बेहतर मार्केटिंग मुमकिन हो सकती है। सीधे उपभोक्ताओं को कृषि उत्पाद बेचने के लिए खास मंडियां बनाने से उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं दोनों के हित साधे जा सकते हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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