JYOTIRADITYA SCINDIA ने किया वंशवाद का खुला समर्थन | NATIONAL NEWS

भोपाल। कांग्रेस के दिग्गज नेता एवं मप्र में मुख्यमंत्री की कुर्सी के दावेदार ज्योतिरादित्य सिंधिया ने राजनीति में वंशवाद का खुला समर्थन किया है। वो टीवी न्यूज चैनल आजतक के शो 'सीधी बात' में बात कर रहे थे। वंशवाद के सवाल पर उन्होंने कहा: "अगर कोई बिज़नेस मैन का लड़का या लड़की हो उस पर आप कटाक्ष नहीं करेंगे। डॉक्टर का लड़का या लड़की डॉक्टर बने, पर अगर किसी जनसेवक का बेटा या बेटी जनसेवा के मैदान में आए तो उस पर टिप्पणी की जाती है। देश की कौन सी पार्टी में वंशवाद नहीं है लेकिन ये सब लोग चुनाव जीतकर आते हैं।

वंशवाद के विरोधी क्या कहते हैं
राजनीतिक विषयों के समीक्षक रोहिणी कश्यप कहते हैं कि व्यापारी का बेटा व्यापारी बन सकता है। क्योंकि दुकान या व्यापार एक व्यक्ति की अर्जित की गई नि​जी संपत्ति होती है परंतु डॉक्टर का बेटा भी डॉक्टर नहीं होता। इसके लिए उसे परीक्षा पास करनी होती है। कलेक्टर का बेटा बिना आईएएस परीक्षा पास किए कलेक्टर नहीं हो सकता। इसी तरह राजनीति में सांसद के बेटे को केवल इसलिए टिकट नहीं दिया जाना चाहिए क्योंकि वो सांसद का बेटा है। राजनीति में पद किसी की अर्जित की हुई संपत्ति नहीं होते जो पिता से पुत्र को विरासत में दिए जा सकें। यहां योग्यता अनिवार्य शर्त होनी चाहिए। ज्योतिरादित्य सिंधिया का तर्क ना केवल अर्थहीन है बल्कि इसे कुतर्क की श्रेणी में रखा जाना चाहिए। शायद सिंधिया को व्यापार और राजनीति में फर्क नहीं मालूम। 

ज्योतिरादित्य सिंधिया वंशवाद का समर्थन क्यों करते हैं
बड़ा सवाल यह है कि जब ज्योतिरादित्य सिंधिया एक लोकप्रिय नेता हैं। जनता उन्हे पसंद करती है। भोपालसमाचार.कॉम, पत्रिका और आईबीसी 24 के सर्वे में जनता ने शिवराज सिंह की तुलना में ज्योतिरादित्य सिंधिया को वोट दिया है तो फिर सिंधिया वंशवाद का समर्थन क्यों कर रहे हैं। उन्हे तो योग्यता का समर्थन करना चाहिए। 
दरअसल, इस सवाल का जवाब ज्योतिरादित्य सिंधिया के पहले चुनाव में छुपा है। तत्कालीन सांसद माधवराव सिंधिया के दुखद निधन के समय ज्योतिरादित्य सिंधिया को राजनीति का 'आर' भी नहीं आता था। ज्योतिरादित्य सिंधिया को पहला टिकट असल में 'अनुकंपा टिकट' था। हालत यह थी कि पर्चा दाखिल करने के 15 दिन बाद तक ज्योतिरादित्य सिंधिया 'बम्बई कोठी' से बाहर ही नहीं निकले। तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने मोर्चा संभाला तब कहीं जाकर वो चुनाव जीत सके। 

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