इसकी नींव तो 'माई का लाल' वाले दिन ही डल गई थी, वरना मेरा मप्र ऐसा ना था | EDITORIAL

उपदेश अवस्थी। मप्र में सोमवार 02 अप्रैल 2018 को जो कुछ हुआ। दुर्भाग्यपूर्ण है। शर्मनाक है। इतिहास में दर्ज किए जाने वाला काला दिन है। जो कुछ भी हुआ, यह मप्र का कल्चर तो कतई नहीं था। यह मप्र का नया रूप है और खेद सहित कहना ही होगा कि मप्र के नक्शे में जातिवाद का रंग किसी और ने नहीं बल्कि खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह से गहरा किया है। सोमवार को जो कुछ हुआ वो अचानक नहीं था। इसकी नींव खुद माननीय शिवराज सिंह ने अपने मुखारबिन्द से डाली थी। यदि वो 'माई का लाल' वाला बयान नहीं देते तो मप्र में वर्ग भेद कभी पैदा नहीं होता। 

मैं बताना चाहता हूं कि ये वही मप्र है, जहां जातियां तो थीं परंतु कभी जातिवाद नहीं था। कुछ ग्रामीण इलाकों में छुआछूत के मामले आते थे परंतु वे उसी स्तर पर दबा भी दिए जाते थे। यहां सिर्फ गलत और सही में अंतर हुआ करता था। गलत में भी सही और सही में भी गलत ढूंढ निकालने की प्रतियोगिता कभी नहीं हुई। यही कारण रहा कि सपा और बसपा जैसी पार्टियां तमाम कोशिशों के बावजूद यहां जड़ें नहीं जमा पाईं। भाजपा और कांग्रेस में कुछ नेताओं को जातियों का प्रतिनिधि माना जरूर गया परंतु यह सत्य नहीं था। कई बार यहां जातिवाद का भ्रम टूटा। जातिवादी नेता को उसी की जाति ने हराकर घर बिठा दिया। 

मप्र के हाईकोर्ट ने एक फैसला दिया था। वो न्यायालय का फैसला था। एक लम्बी लड़ाई के बाद आया था। वो अंतिम नहीं था। उस पर राजनीति की अनुमति नहीं थी लेकिन दलित वोटों के लालच में मुख्यमंत्री जैसे पद पर बैठे हुए व्यक्ति ने यह गुनाह किया। 'कोई माई का लाल' बयान ही वो एकमात्र कारण है जिसने एक वर्ग विशेष को आंदोलित किया। मप्र के शांत समाज को वर्गों में परिवर्तन कर दिया। पहली बार मप्र का सरकारी अमला वर्गों में बंटा हुआ नजर आया। पहले वो केवल कर्मचारी हुआ करते थे, अब अजाक्स और सपाक्स के कार्यकर्ता बन गए हैं। 

बताने की जरूरत नहीं कि कर्मचारी सीधी राजनीति नहीं करते परंतु वो राजनीति को प्रभावित करते हैं। समाज को सबसे ज्यादा प्रभावित कर्मचारी ही करते हैं। प्रमोशन में आरक्षण का मुद्दा देखते ही देखते पूरी व्यवस्था में आरक्षण का समर्थन और विरोध बन गया। इसे सरकार की नासमझी ही कहा जाएगा कि उसने हालात पर तत्काल नियंत्रण नहीं किया। मेरे प्रदेश की रंगों में जहर घुलता गया, रोग बढ़ता गया। सोमवार को जो कुछ हुआ वह इसी का परिणाम है। 

एक वर्ग हाथों में लाठियां लेकर जबरन बाजार बंद करा रहा था। वो अपील नहीं कर रहा था क्योकि उसे विश्वास था कि सरकार उसके साथ है। दूसरा वर्ग 'कोई माई का लाल' के कारण सरकार से नाराज था इसलिए वो भारत बंद के खिलाफ खड़ा हो गया। बाजार खोल दिया गया और उसके बाद जो कुछ हुआ किसी को बताने की जरूरत नहीं। बात जर्मनी की हो, वैनेजुएला की या फिर मप्र की। जब जब समाज को वर्गों में बांटा गया। ऐसे ही परिणाम आए हैं। मेरा मप्र अब तक इससे बचा हुआ था। एक नेता की जीतने की जिद ने, मेरे मप्र के नक्शे में भी वर्गों का रंग भर दिया। 

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