चुनाव में विदेशी चंदे का खतरा | KHULA KHAT

राजेन्द्र बंधु। सरकार आने वाले चुनावों में राजनैतिक दलों के लिए पैसों की कमी दूर करने का रास्ता तैयार कर रही है। इसी कड़ी में लोकसभा में विदेशी चंदा नियमन कानून 2010 (एफसीआरए) में संशोधन किया गया है। इससे पहले विदेशी चंदे और अनुदान से समाज सेवा तथा विकास संबंधी कार्य ही किए जा सकते थे, जिसे 2010 में सरकार ने संशोधन कर अत्यन्त कठोर बना दिया था, ताकि स्वयं संस्थाएं इसका दुरूपयोग नहीं कर सकें। 

इस कानून का नतीजा यह हुआ कि आदिवासी, दलित एवं महिलाओं की समस्याओं सहित विभिन्न मुद्दों पर काम करने वाले संगठनों के लिए सरकार की नीतियों के खिलाफ बोलना या विचार व्यक्त करना भी मुश्किल हो गया और उन्हें अपने एफजीआरए का लाईसेंस बचाने के लिए अभिव्यक्ति के संवैधानिक अधिकार से समझौता करना पडा। इसके विपरीत अब देश के राजनैतिक दल विदेशी चंदा आसानी से प्राप्तत कर सकेंगे । चूंकि वे सूचना के अधिकार के दायरे में नहीं आते, अतः उस चंदे का हिसाब मांगने का भी अधिकार देश की जनता को नहीं होगा। 

लोकप्रतिनिधित्व कानून एवं 1976 के एफसीआरए कानून के अनुसार चुनावों में विदेशी धन का उपयोग किए जाने पर पांबदी रही है। इसके बावजूद कई राजनैतिक दलों द्वारा किसी न किसी रूप से इस धन का उपयोग किया जाता रहा है। पिछले कानून के अनुसार 26 सितम्बर 2010 से पहले विदेशी चंदा प्राप्त करने वाले राजनैतिक दलों की जांच की जा सकती थीं। उल्लेखनीय है कि सन् 2013 में कांग्रेस और बीजेपी द्वारा विदेशी कंपनी वेदांता से चंदा लेने का मामला सामने आया था, जिस पर मार्च 2015 कें दिल्ली उच्च न्यायालय ने  दोनों ही दलों को विदेशी मुद्रा विनिमय कानून 1976 का दोषी पाया था। 

उच्च न्यायालय ने भारत के निर्वाचन आयोग को इस मामले में कदम उठाने के लिए कहा था, जिसका पालन करते हुए निर्वाचन आयोग ने मामला देश के गृहमंत्रलय को कार्यवाहीं हेतु भेजा था, और जो कार्यवाही हुई वह लोकसभा में पारित इस संशोधन के रूप में सबसे सामने है। जिसके अनुसार अब राजनैतिक दल न सिर्फ विदेशी कंपनियों से चंदा ले सकेंगे, बल्कि 1976 के बाद से किसी भी तरह के विदेशी चंदे और कानून के उल्लंघन की जांच भी नहीं की जा सकेगी।

देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था और निर्वाचन जैसे महत्वपूर्ण विषय पर बगैर किसी बहस के मिनटों में यह संशोधन पारित हो जाना हमारी राजनैतिक जमात की नियत पर गंभीर सवाल खड़े करता है। इसे हम सिर्फ दुर्भाग्य मानकर नहीं छोड़ सकते, बल्कि इससे हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर गंभीर खतरा पैदा हो गया है।  इसके कई दूरगामी परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं। हालांकि सरकार ने बड़ी चलाकी से इस संशोधन में विदेशी कंपनियों की परिभाषा बदलकर यह बताने की कोशिश की है कि चंदा देने वाले कंपनी विदेशी नहीं मानी जाएगी। लेकिन परिभाषा बदलने से इसके दुष्प्रभाव कम नहीं होंगे। 

2010 के एफसीआरए कानून के अनुसार राजनैतिक दलों और चुनाव प्रक्रिया को विदेशी चंदे से मुक्त रखने से पीछे मूल भावना देश के शासन को विदेशी हस्तक्षेप से सुरक्षित करना था। ताकि हमारी सरकार आंतरिक रूप से संप्रभु और बाह्य रूप से स्वत्रंत रह सके। यह किसी भी देश की संप्रभुता के लिए जरूरी होता है तथा कोई भी स्वतंत्र देश इससे समझौता नहीं करना चाहेगा। लेकिन भारत के राजनेताओं ने बहुत ही गैर जिम्मेदारना तरीके इसे खतरे में डाल दिया है।

हमारा अब तक का यही अनुभव रहा है कि राजनैतिक दलों को चंदा देने वाली देश की कंपनियां भी कहीं न कहीं अपना हित साधने का प्रयास करती है। वे अपने योगदान या चंदे के बदले विभिन्न प्रकार की रियायतें पाने का प्रयत्न करती है। इस दशा में क्या विदेशी कंपनियां  इससे मुक्त होगी। यह देखा गया है कि विदेशी कंपनियों की नजर हमारे प्राकृतिक संसाधनों जैसे जल, जमीन, जंगल आदि पर रहती आई है। राजनैतिक दलों को चंदा देने वाली कंपनियां जब अपने पैर इन संसाधनों की ओर फैलाएंगी तो उसके कैसे रोक जा सकेगा। 

दूसरी ओर सरकार ने समाज सेवा और विकास कार्यो हेतु एनजीओ द्वारा विदेशी धन के उपयेाग पर लगाम लगा रखी है। दलित, आदिवासी एवं महिलाओं के अधिकारों पर काम करने वाले कई एनजीओ के एफसीआरए लाईसेंस रद्द किए जा चुके हैं। जबकि उन एनजीओ के पास किसी भी तरह के व्यापक अधिकार नहीं रहे और जिला कलेक्टर चाहे तो उन्हें तबल कर सकते थे और कार्यवाही कर सकते थे। इसके बावजूद एनजीओ को एफसीआरए के अंतर्गत अपना पंजीयन बचा पाना मुश्किल हो रहा है। जबकि एफसीआरए के नए संशोधन में राजनैतिक दलों को न सिर्फ चंदा प्राप्त करने का अधिकार है, बल्कि उस चंदे का हिसाब भी नहीं पूछा जा सकेगा। 

इस संदर्भ में यह सवाल भी समाने आता है कि आखिर सरकार को  इस संशोधन की जरूरत ही क्यों पड़ी? क्या दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले और कार्यवाही से बचने के लिए या आगामी चुनावों में पैसों की कमी की वजह से? आखिर हमने चुनावों को इतना खर्चीला बना लिया है कि उसके लिए करोड़ों रूपए की जरूरत होती है? वह भी उन दलों द्वारा जो अब तक स्वदेशी और स्वधन की बात करते आ रहे थे। इस दशा में देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को खतरे में डालने वाले राजनैतिक दलों पर देश की जनता कैसे विश्वाहस करेगी?
राजेन्द्र बंधु
हाईकोर्ट एडव्होकेट, इन्दौर मध्यप्रेदश
संयोजक : समान सोसायटी फॉर जस्टिस एण्ड इक्वालिटी 
Phone: 8889884676
Email: rajendrabandhu@gmail.com 

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