कृष्णकुमार डोबले। मध्यप्रदेश में चारो तरफ संविदा कर्मचारियों के द्वारा नियमितीकरण के लिए आन्दोलन किया जा रहा है। आईए निरपेक्ष होकर थोडा विचार किया जाये- नियमितीकरण के लिए हो रहे आन्दोलन के लिए कहीं न कहीं वर्तमान मध्यप्रदेश सरकार ही जिम्मेदार है और इसके पीछे उसकी पालिसी पैरालिसिस का होना है। शासन स्तर से, पिछले कुछ सालों से जो पालिसी बनायीं जा रही है वो किसी भी तरह युनिवर्सल नहीं है। यह या तो तात्कालिक समाधान के लिए अथवा वोट बैंक को साधने की लिए ही बनायीं गयी है।
पहला, विचार करें प्रदेश में शिक्षा विभाग में ही शासन ने हास्यास्पद एवं अन्यायपूर्ण निति को अपनाएं रखा है। एक तरफ तो शिक्षा विभाग के अध्यापकों के 03 वर्ष पूर्ण होने पर नियमित करने के लिए निति बनाई है परन्तु उसी विभाग में गैर शिक्षकीय कार्य करने वाले अमले के लिए कोई नीति नहीं बनायी। जबकि अधिकांश कर्मचारी उसी व्यापमं को क्वालीफाई कर कार्य कर रहे है जिसके द्वारा अध्यपको की नियुक्ति हुयी है। फिर शासन का यह कहना की संविदा कर्मचारियों के लिए कोई नीति नहीं है, तो इन्होने केवल अध्यापकों के लिए ही क्यों नीति बनाई क्या यह अन्याय नहीं है तो क्या है ?
शासन ने पूरे शिक्षा विभाग के लिए एक ही संविदा नीति क्यों नहीं बनाई, इसके लिए शासन को किसने रोका और इस मुर्खतापूर्ण निति का ड्राफ्ट किसने तैयार किया और तैयार करने के बाद भी लागु कैसे हो गयी, इसके लिए कौन दोषी है? दूसरा, सभी विभाग में नियमित पद है जिसके विरूद संविदा कर्मचारियों का यदि राज्य स्तरीय परीक्षा के माध्यम से चयन किया गया है तो निश्चित अवधी के पश्चात् नियमित करना जायज ही होगा और इसके लिए शासन को कोई अतिरिक्त भार नहीं आयेगा।
तीसरा ग्रामीण स्तर पर पिछले दरवाजे से जो पंचायत सचिव, गुरुजियों की नियुक्ति की गयी उनको नियमित कर दिया गया है, ये कहां तक उचित है ? इस व्यवस्था में तो काबिल के साथ साथ कुछ अयोग्य लोग भी नियमित हो गए है। यह उन संविदा कर्मचारियों पर तमाचा नहीं है तो क्या है जिन्होंने बहुत मशक्कत के बाद व्यापमं पास कर आधी तन्खाव्ह पर पूरा कार्य कर रहे है।
चौथा, शासन स्वयं आगे आकर संविदा कर्मचारियों को समय रहते, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत समान कार्य सामान वेतन दे देती तो शायद शासन के विरुद आन्दोलन इतना शक्तिशाली और उग्र नहीं होता। साथ ही यह संविधान के स्तर से न्याय ही माना जाता और इसका श्रेय भी वर्तमान शासन को जाता परन्तु ऐसा नहीं किया गया।
पाचंवा, जब दिल्ली और हरयाणा जैसे कुछ राज्य संविदा कर्मचारियों को नियमित कर रहे है तो वर्तमान मप्र सरकार के पास अन्याय रहित ऐसा कोई ठोस कारण भी नहीं है की संविदा कर्मचारियों को नियमित नहीं किया जाये।
छटवां, वर्तमान मप्र सरकार अपना तीसरा कार्यकाल पूरा कर रही है अतः यह कहना की संविदा कर्मचारियों के लिए सरकार विचार कर रही है सरकार की अकर्मण्यता को प्रदर्शित करता है, क्योंकि 15 वर्ष किसी भी सरकार के लिए जिसकी नियत अच्छी हो राज्य की दिशा और दशा बदलने के लिए बहुत बड़ा समय अन्तराल होता है। यदि 15 वर्षो में कोई मुद्दा हल नहीं किया जा सका हो तो और कितना समय इनको चाहिए जबकि संविदा कर्मचारियों को नियमित करने का वादा वर्तमान सरकार अपने घोषणा पत्र में कर चुकी थी।
शासन को विभिन विभागों में नियमिति पदों पर ही इन संविदा कर्मचारियों को नियमित करना है, अर्थात अलग से बजट की आवश्यकता नहीं होगी अगर होगी भी तो वह भी बहुत ही कम होगा। फिर सभी विभागों में सभी कार्यालयों में कोई ना कोई एक या दो ऐसे अकर्मण्य कर्मचारी जो नियमित है कार्य कर रहे है जिनको मिल रहे वेतन की तुलना में उनका औसत कार्य 05% भी नहीं है यदि ऐसे लोगो को शासन पूरा वेतन दे रही है तो उर्जावान, युवा और कुछ नया करने की इच्छा रखने वाले कर्मचारियों को पूरा वेतन क्यों नहीं देना चाहिए ?
शासन को चाहियें की एक यूनिवर्सल निति बनायें जिसमे इम्तिहान देकर संविदा पर कार्य करने वाले सभी कर्मचारियों को नियमित कर पूरा वेतन दे और उसी अनुपात में इनसे कार्य लेने के लिए प्रत्येक विभाग में वर्किंग एनवायरनमेंट विकसित करवाएं जिससे कोई भी अयोग्य व्यक्ति, किसी भी तंत्र में ना आ सके और मुफ्त की रोटियां ना तोड़ सके। यदि इन संविदा कर्मचारियों की नियुक्ति संस्था स्तर से हुयी होती या शासन इनके वार्षिक अनुबंध को एक साल के बाद तोड़ देती अर्थात इनकी सेवा जारी नहीं लेती तो कह सकते थे की इन कर्मचारियों को नियमिति करने की शासन की जिम्मेदारी नहीं होती, परन्तु इन कर्मचारियों ने अपने जीवन के 15 से 20 वर्ष जो इनका स्वर्णिम काल था अपनी सेवाएं दी इनमे से कुछ ऐसे भी है जो अब किसी परीक्षा में बैठने की उम्र सीमा को पार कर चुके है तब। अतः शासन को चाहिए की तार्किक ढंग से इस समस्या का हल शीघ्र करे क्योंकि ढाई से तीन लाख संविदा कर्मचारी सत्ता परिवर्तन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते है।