मध्यप्रदेश: खेती, माल–ए-मुफ्त दिल–ए-बेरहम

राकेश दुबे@प्रतिदिन। मध्यप्रदेश के खजाने पर किसानों को दी गई सुविधाएँ बोझ बनने लगी है। यह फैसला करना मुश्किल हो रहा है की रियायतें किस सीमा तक। सबसे पहले प्याज़। पिछले साल सरकार ने करीब 9 लाख टन प्याज 8 रुपये प्रति किलोग्राम की दर पर किसानों से खरीदा। तब भी किसान इससे भी खुश नहीं थे आंदोलन हुआ। जिसने हिंसा का रूप ले लिया। गोलीबारी में पांच लोग मारे गए। आखिर में प्याज सड़ गया क्योंकि मार्कफेड जैसी सरकारी एजेंसियों ने प्याज खरीद तो लिया लेकिन उसके पास उसे रखने की सुविधा नहीं थी और बुनियादी ढांचा न होने के कारण वे उसे बेच नहीं सकीं।

इसके बाद सोयाबीन और तुअर। पिछले साल इन दोनों जिंसों की कीमत में अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारी कमी आई। रोचक बात यह है कि पड़ोसी राज्यों महाराष्ट्र और राजस्थान में कीमतें स्थिर बनी रहीं क्योंकि उन राज्यों में न्यूनतम राज्य समर्थन मूल्य (एमएसपी) मध्य प्रदेश की तुलना में कम था। कीमतें केवल मध्य प्रदेश में गिरीं। यह इस बात का साफ संकेत था कि चंद लोगों का समूह बाजार के साथ खिलवाड़ कर रहा था। जो लोग इनके बारे में जानते थे उनका कहना था कि मंडी एजेंटों ने एकजुट होकर गठजोड़ कर लिया और जानबूझकर कीमतों पर दबाव बनाया।नतीजतन सरकार ने हस्तक्षेप किया। शिवराज सिंह चौहान एक ऐसी योजना लेकर आए जो सबको खुश रखने वाली थी। इसमें व्यापारियों के गठजोड़ और कारोबारियों दोनों के लिए गुंजाइश थी। नया एमएसपी घोषित किया गया और तीन राज्यों में जिंस के औसत बाजार मूल्य के आधार पर एक आदर्श मूल्य तय करने का फॉर्मूला पेश किया गया। 

किसान अपनी उपज को राज्यों की मंडी में बेचने के लिए पंजीयन करते हैं और बदले में उनको रसीद दी जाती है। एमएसपी और आदर्श मूल्य के बीच के अंतर यानी भावांतर के भुगतान का बोझ राज्य सरकार वहन करती है। यह दोहरी सब्सिडी जैसी व्यवस्था है। इसमें कारोबारियों को अप्रत्यक्ष रूप से और किसान को प्रत्यक्ष रूप से सब्सिडी मिल रही है। व्यापारी इससे बेहद उत्साहित नजर आए। वे किसानों को न्यूनतम कीमत चुका रहे हैं और कह रहे हैं कि बीच का अंतर तो सरकार वहन करेगी ही। किसान उच्चतम मूल्य हासिल करना चाहते हैं। परंतु वे अभी भी पूरी तरह व्यापारियों और मंडी की दया पर निर्भर है। अगर वह अपनी उपज को मंडी में बेच नहीं सकता तो उसके लिए कीमत का कोई संदर्भ ही नहीं बचता। 

सवाल यह है प्रदेश में शून्य प्रतिशत ब्याज पर कृषि ऋण, तमाम तरह के प्रोत्साहन आदि की मदद से खेती के क्षेत्र में इतना शानदार प्रदर्शन किया है, वहीं वह कृषि व्यापारियों की उस लॉबी को क्यों नहीं नष्ट कर पाए जो कृषि उपज विपणन समितियों को चलाती है। यह सारा बोझ वहन कौन करेगा ? कर दाता, सरकार का खजाना तो वैसे ही खाली है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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