
तब प्रदेश का अध्यापक अपने अंतर्मन की आवाज़ पर बिना बुलावे के बिना सब्जबाग दिखावे के हजारो की तादाद में भोपाल स्वतः ही चला आता था। तबके अध्यापको के संघर्ष की मिसाले सारे प्रदेश में दी जाती थी। आज भी प्रदेश के कई बड़े कार्यालयों में पट्टिकाएं दीवार पर लगी देखी जा सकती है जिन पर लिखा है कि संघर्ष करना सीखना है तो मध्यप्रदेश के शिक्षाकर्मियों/अध्यापको से सीखो कैसे एकजुट होकर सरकार से लड़ा जाता है।
इन सब के उलट आज स्थिति अध्यापको की बहुत दयनीय ओर निराशाजनक हो गई है और अमूमन सभी नए पुराने अध्यापको के संघ अपनी अंतिम सांसे गिन रहे है। इसे विडम्बना कहे या फिर दुर्भाग्य कि आज सारे अध्यापक नेता मिलकर भी पांच हजार अध्यापकों का हूजूम भोपाल में जुटाने की हैसियत में नही रखते है। हकीकत तो यह है कि आज हमारे अध्यापक नेता ढोल पीटकर भी भोपाल जाए तो सरकार का एक बाबू भी अजरज नही करता है। उलटे हमारे अध्यापक नेताओं को ही अपने आने का कारण उन्हें बताना पड़ता है।
यह दयनीय स्थिति ख़ुद हमारे नेताओं ने अध्यापको की निगाहों में खुद को अव्वल दिखने की लालसा में की है। हमारे नेता यह भूल जाते है कि वे राष्ट्र निर्माता शिक्षकों के नेतृत्वकर्ता है ओर चाहे जब सरकार, मंत्री, नेता और अफसरशाही के बग़ल में बैठने की चाह में उनकी चरण वन्दना करने लग जाते है। कमोबेश प्रदेश के अध्यापकों का नेतृत्त्व ऊपर से लेकर नीचे तक चरण वन्दना की भेंट चढ़कर अपने आखरी दौर में जा पहचा है। प्रदेश के एक एक अध्यापक को ख़ुद गहन चिंतन मनन कर अपने नेतृत्त्व को मथना होगा तभी हम सरकार की मांद से विसंगतिरहित सातवा वेतनमान ओर संविलियन निकाल सकेंगे।