RSS ने भारत छोड़ो आंदोलन का विरोध किया था या नहीं: एक अध्ययन

भारत छोड़ो आंदोलन के 75 साल पूरे होने के मौके पर बुधवार को लोकसभा में पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और फिर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपना भाषण दिया। इस अवसर पर एक बार फिर यह बहस छिड़ गई है कि आजादी की लड़ाई में आरएसएस की भूमिका क्या थी। आरएसएस पर आरोप लगाया गया है कि उसने 'भारत छोड़ो आंदोलन' का विरोध किया था। भाजपा नेताओं ने सोनिया गांधी के बयान पर काफी तीखी प्रतिक्रियाएं दीं हैं। कहा है कि ऐसे अवसर पर राजनीति करना अच्छी बात नहीं है। देश सोनिया गांधी को कभी माफ नहीं करेगा परंतु किसी भी बयान में यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि आरएसएस ने 'भारत छोड़ो आंदोलन' का विरोध किया था या नहीं। यदि नहीं किया था तो क्या आरएसएस 'भारत छोड़ो आंदोलन' में शामिल था। 

हैदराबाद यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर ज्योतिर्मय शर्मा इस मामले में कहते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने 1925 से हमेशा ये माना कि स्वतंत्रता की लड़ाई केवल एक राजनीतिक लड़ाई है और राजनीति से संघ का कोई रिश्ता ही नहीं है। राजनीति को संघ ने तुच्छ माना है, निम्न माना है। पत्रकार आशुतोष लिखते हैं कि ये इतिहास का वो काला सच है जिसको आज छिपाने का प्रयास किया जाता है। आरएसएस के दूसरे प्रमुख एमएस गोलवलकर ने 24 मार्च, 1936 को आरएसएस प्रचारक कृष्णराव वाडेकर को एक चिठ्ठी लिखी, जिसमें लिखा - “क्षणिक उत्साह और भावनात्मक उद्वेलन से पैदा हुये कार्यक्रमों से संघ को दूर रहना चाहिये।” उनकी नजर में आजादी की लड़ाई एक “क्षणिक उत्साह” था।

गोलवलकर यहीं नहीं रुकते। वो आगे कहते हैं - "इस तरह से अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने की कोशिश 'सतही राष्ट्रवाद' है।" इस चिठ्ठी में वो वाडेकर को ताकीद करते हैं कि वो धूले जलगांव इलाके में संघ की शाखा स्थापित करने पर ध्यान दें। गोलवलकर ने ये माना कि आरएसएस कार्यकर्ताओं के मन में भी भारी ऊहापोह था। इनमें से कई भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेना चाहते थे। पर गोलवलकर ने संघ कार्यकर्ताओं को ऐसी किसी भी मुहिम या आंदोलन का हिस्सा बनने से मना कर दिया।

गोलवलकर ने लिखा है -"1942 में बहुत सारे संघ कार्यकर्ताओं के दिल में भावनायें उछाल मार रही थी। फिर भी, उस समय, संघ का काम निर्बाध चलता रहा। संघ ने कसम खाई थी कि वो सीधे (आंदोलन में) हिस्सा नहीं लेगा। इसके बावजूद संघ स्वयंसेवकों के दिमाग में भारी उथल-पुथल मची रही। 

गोलवलकर के इन शब्दों से साफ है कि ढेरों स्वयंसेवकों का मन आजादी की लड़ाई में हिस्सा लेने के लिये मचल रहा था। उनमें देशप्रेम की भावना हिलोरें मार रही थी पर संघ नेतृत्व हिस्सा न लेने पर अड़ा रहा। यही नहीं संघ ने यहां तक कहा कि आजादी की लड़ाई की वजह से देश और समाज पर उलटा असर पड़ा।

गोलवलकर कहते हैं- "निश्चित तौर पर संघर्ष का गलत नतीजा निकलेगा। 1920-21 के आंदोलन के बाद लड़के उच्छृंखल हो गये। मेरा मतलब नेताओं पर कीचड़ उछालना नहीं है। ऐसा होना स्वाभाविक है। 1942 के बाद लोगों ने सोचना शुरू कर दिया कि कानून पालन करने का कोई मतलब नहीं है। आज की पीढ़ी को ये जानकर आश्चर्य होगा कि आरएसएस ने महान स्वतंत्रता सेनानियों के बलिदान को भी काफी हल्के में लिया। गोलवलकर की नजर में भगत सिंह और चंद्रशेखर की कुर्बानी असफलता का प्रतीक है। वो लिखते हैं, "हमारे आराध्य पुरूष श्री राम जैसे सफल लोग हैं। जो जीवन में असफल रहे उनमें जरूर कोई न कोई गंभीर दोष रहा होगा। वो जो परास्त है वो समाज को रोशनी कैसे दिखा सकता है, दूसरों को कैसे कामयाब बना सकता है।

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