देश का डोलता अर्थशास्त्र और भारतीय उपभोक्ता

राकेश दुबे@प्रतिदिन। मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद से ही वित्त मंत्रालय भारतीय रिजर्व बैंक के साथ ब्याज दरें घटाने की लड़ाई में उतरा हुआ है। दूसरी ओर सरकार ने इंसॉल्वेंसी ऐंड बैंक्रप्ट्सी कोड (आईबीसी) कानून पारित किया, जिसका मकसद दिवालिया कंपनियों से वसूली करना है। यह कानून हमारी बैंकिंग प्रणाली को चूना लगाने वालों को सबक सिखा सकता है। लेकिन इसे अमल में लाते हुए जमीनी हकीकत को भी देखना जरूरी है। ऐसे ज्यादातर मामलों में दो ही पक्ष होते हैं कंपनी का मैनेजमेंट और कर्ज देने वाला बैंक।

बजट से ठीक पहले जारी होने वाला राष्ट्रीय आर्थिक सर्वेक्षण इस बार जनवरी में आधा ही जारी हो सका था तो इसकी दो वजहें थीं। घोषित वजह यह कि बजट महीनाभर पहले आ गया था, तब तक सर्वे तैयार करने के लिए जरूरी आंकड़े उपलब्ध नहीं थे और अघोषित कारण यह कि नोटबंदी से मची हलचलों ने वित्त मंत्रालय को अर्थव्यवस्था के बारे में कोई ठोस बात कहने लायक ही नहीं छोड़ा था। नतीजा यह हुआ कि इकनॉमिक सर्वे के नाम पर तब कुछ अमूर्त इस दस्तावेज में कुछ भयानक बातें कही गई हैं। जैसे यह कि भारत का कृषि क्षेत्र तो तनाव से गुजर ही रहा है, साथ में टेलिकॉम और पावर सेक्टर से भी संकट के इशारे मिल रहे हैं। शेयर बाजार के बारे में बताया गया है कि अभी यह 2007 जैसी बेवजह ऊंचाई पर जा पहुंचा है। शेयरों की कीमतें कंपनियों की प्रति शेयर सालाना आय के 18 गुने के दीर्घकालिक औसत से काफी ऊंची चली गई हैं।

सर्वे की दूसरी किस्त में कहा गया है कि नीतिगत ब्याज दरें अपनी स्वाभाविक स्थिति की तुलना में 0.25 से 0.75 प्रतिशत ज्यादा हैं। यानी रिजर्व बैंक अगर इसी साल ब्याज दरें एक-दो बार और घटा दे तो शायद बात बन जाए लेकिन रिजर्व बैंक की स्थिति को अगर वित्त मंत्रालय के इस दस्तावेज की ही रोशनी में देखें तो कुछ हास्यास्पद निष्कर्ष निकलते हैं। देश के लगभग सारे ही बैंक डूबे हुए कर्जों से निपटने की कोशिश में लगे हैं। किसानों की कर्जमाफी का बोझ भी अंतत: रिजर्व बैंक के ही खाते में जाना है। ऊपर से टेलिकॉम और पावर सेक्टर को दिए गए कर्जे फंसने की आशंका भी इकनॉमिक सर्वे ने जता दी है। जब मूलधन ही डूबने के इतने सारे खतरे रिजर्व बैंक के सामने हैं, तो भला किस भरोसे पर ब्याज दरें घटाने की उम्मीद उससे की जा रही है?

इस सब का प्रभाव रीयल्टी स्टेट सेक्टर पर हो रहा है। कम्पनी, बैंक के अलावा एक तीसरा पक्ष घर, दुकान और दफ्तर खरीदने वालों का भी है, जिनमें बहुतेरे लोगों की जिंदगी दांव पर लगी है। बिल्डर की चूक से उनकी गाढ़ी कमाई डूब रही है। जेपी और आम्रपाली की तरह के एक-दो और उदाहरण आ गए तो रीयल्टी सेक्टर से लोगों का भरोसा ही उठ जाएगा। इक्कीसवीं सदी में भारतीय अर्थव्यवस्था को गति देने में इस सेक्टर का बड़ा हाथ है। इसकी साख खत्म हो गई तो हमारी इकॉनमी को गहरा धक्का लगेगा। बैंक और विशेष कर रिजर्व बैंक को ही कुछ सोचना चाहिए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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