दिव्य व्रत संतान सप्तमी: कथा एवं पूजा विधि सहित पूरी जानकारी

संतान सप्तमी एक दिव्य व्रत है और इसके पालन से विविध कामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। संतान सप्तमी व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष कि सप्तमी तिथि के दिन किया जाता है। इस वर्ष 28 अगस्त, 2017 को सोमवार के दिन मुक्ताभरण संतान सप्तमी व्रत किया जाएगा। यह सप्तमी पुराणों में रथ, सूर्य, भानु, अर्क, महती, आरोग्य, पुत्र, सप्तसप्तमी आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध है और अनेक पुराणों में उन नामों के अनुरूप व्रत की अलग-अलग विधियों का उल्लेख है। यह व्रत विशेष रुप से संतान प्राप्ति, संतान रक्षा और संतान की उन्नति के लिये किया जाता है। इस व्रत में भगवान शिव एवं माता गौरी की पूजा का विधान होता है।

सप्तमी का व्रत माताओं के द्वारा किया अपनी संतान के लिये किया जाता है इस व्रत का विधान दोपहर तक रहता है। इस दिन जाम्बवती के साथ श्यामसुंदर तथा उनके बच्चे साम्ब की पूजा की जाती है। माताएं पार्वती का पूजन करके पुत्र प्राप्ति तथा उसके अभ्युदय का वरदान मांगती है। इस व्रत को करने वाली माता को प्रात:काल में स्नान और नित्यक्रम क्रियाओं से निवृ्त होकर, स्वच्छ वस्त्र धारण करने चाहिए। इसके बाद प्रात काल में श्री विष्णु और भगवान शिव की पूजा अर्चना करनी चाहिए तथा सप्तमी व्रत का संकल्प लेना चाहिए। निराहार व्रत कर, दोपहर को चौक पूरकर चंदन, अक्षत, धूप, दीप, नैवेध, सुपारी तथा नारियल आदि से फिर से शिव- पार्वती की पूजा करनी चाहिए। सप्तमी तिथि के व्रत में नैवेद्ध के रुप में खीर-पूरी तथा गुड के पुए बनाये जाते है। एक कलावे में सात गांठ बांधकर संतान की रक्षा की कामना करते हुए भगवान भोलेनाथ को कलावा अर्पित किया जाता है तथा बाद में इसे स्वयं धारण कर इस व्रत की कथा सुननी चाहिए।

संतान सप्तमी व्रत कथा 
एक दिन महाराज युधिष्ठिर ने भगवान से कहा- हे प्रभो! कोई ऐसा उत्तम व्रत बतलाइये जिसके प्रभाव से मनुष्यों के अनेकों सांसारिक क्लेश दुःख दूर होकर वे पुत्र एवं पौत्रवान हो जाएं। यह सुनकर भगवान बोले - हे राजन्‌! तुमने बड़ा ही उत्तम प्रश्न किया है। मैं तुमको एक पौराणिक इतिहास सुनाता हूं ध्यानपूर्वक सुनो। एक समय लोमष ऋषि ब्रजराज की मथुरापुरी में वसुदेव के घर गए। ऋषिराज को आया हुआ देख करके दोनों अत्यन्त प्रसन्न हुए तथा उनको उत्तम आसन पर बैठा कर उनका अनेक प्रकार से वन्दन और सत्कार किया। फिर मुनि के चरणोदक से अपने घर तथा शरीर को पवित्र किया। वह प्रसन्न होकर उनको कथा सुनाने लगे। कथा के कहते लोमष ने कहा कि - हे देवकी! दुष्ट दुराचारी पापी कंस ने तुम्हारे कई पुत्र मार डाले हैं जिसके कारण तुम्हारा मन अत्यन्त दुःखी है। इसी प्रकार राजा नहुष की पत्नी चन्द्रमुखी भी दुःखी रहा करती थी किन्तु उसने संतान सप्तमी का व्रत विधि विधान सहित किया। जिसके प्रताप से उनको सन्तान का सुख प्राप्त हुआ।

यह सुनकर देवकी ने हाथ जोड़कर मुनि से कहा- हे ऋषिराज! कृपा करके रानी चन्द्रमुखी का सम्पूर्ण वृतान्त तथा इस व्रत को विस्तार सहित मुझे बतलाइये जिससे मैं भी इस दुःख से छुटकारा पाउं। लोमष ऋषि ने कहा कि - हे देवकी! अयोध्या के राजा नहुष थे। उनकी पत्नी चन्द्रमुखी अत्यन्त सुन्दर थीं। उनके नगर में विष्णुगुप्त नाम का एक ब्राह्‌मण रहता था। उसकी स्त्री का नाम भद्रमुखी था। वह भी अत्यन्त रूपवती सुन्दरी थी। रानी और ब्राह्‌मणी में अत्यन्त प्रेम था। एक दिन वे दोनों सरयू नदी में स्नान करने के लिए गई।  वहां उन्होंने देखा कि अन्य बहुत सी स्त्रियां सरयू नदी में स्नान करके निर्मल वस्त्र पहन कर एक मण्डप में शंकर एवं पार्वती की मूर्ति स्थापित करके पूजा कर रही थीं। रानी और ब्राह्‌मणी ने यह देख कर उन स्त्रियों से पूछा कि - बहनों! तुम यह किस देवता का और किस कारण से पूजन व्रत आदि कर रही हो। यह सुन कर स्त्रियों ने कहा कि हम सनतान सप्तमी का व्रत कर रही हैं और हमने शिव पार्वती का पूजन चन्दन अक्षत आदि से षोडषोपचार विधि से किया है। यह सब इसी पुनी व्रत का विधान है।

यह सुनकर रानी और ब्राह्‌मणी ने भी इस व्रत के करने का मन ही मन संकल्प किया और घर वापस लौट आईं। ब्राह्‌मणी भद्रमुखी तो इस व्रत को नियम पूर्वक करती रही किन्तु रानी चन्द्रमुखी राजमद के कारण कभी इस व्रत को करती, कभी न करती। कभी भूल हो जाती। कुछ समय बाद दोनों मर गई। दूसरे जन्म में रानी बन्दरिया और ब्राह्‌मणी ने मुर्गी की योनि पाई। परन्तु ब्राह्‌मणी मुर्गी की योनि में भी कुछ नहीं भूली और भगवान शंकर तथा पार्वती जी का ध्यान करती रही, उधर रानी बन्दरिया की योनि में, भी सब कुछ भूल गई। थोड़े समय के बाद दोनों ने यह देह त्याग दी। अब इनका तीसरा जन्म मनुष्य योनि में हुआ। उस ब्राह्‌मणी ने एक ब्राह्‌मणी के यहां कन्या के रूप में जन्म लिया। उस ब्राह्‌मण कन्या का नाम भूषण देवी रखा गया तथा विवाह गोकुल निवासी अग्निशील ब्राह्‌मण से कर दिया, भूषण देवी इतनी सुन्दर थी कि वह आभूषण रहित होते हुए भी अत्यन्त सुन्दर लगती थी। कामदेव की पत्नी रति भी उसके सम्मुख लजाती थी।

भूषण देवी के अत्यन्त सुन्दर सर्वगुणसम्पन्न चन्द्रमा के समान धर्मवीर, कर्मनिष्ठ, सुशील स्वभाव वाले आठ पुत्र उत्पन्न हुए। यह सब शिवजी के व्रत का पुनीत फल था। दूसरी ओर शिव विमुख रानी के गर्भ से कोई भी पुत्र नहीं हुआ, वह निःसंतान दुःखी रहने लगी। रानी और ब्राह्‌मणी में जो प्रीति पहले जन्म में थी वह अब भी बनी रही। रानी जब वृद्ध अवस्था को प्राप्त होने लगी तब उसके गूंगा बहरा तथा बुद्धिहीन अल्प आयु वाला एक पुत्र हुआ वह नौ वर्ष की आयु में इस क्षणभंगुर संसार को छोड़ कर चला गया। अब तो रानी पुत्र शोक से अत्यन्त दुःखी हो व्याकुल रहने लगी। दैवयोग से भूषण देवी ब्राह्‌मणी, रानी के यहां अपने पुत्रों को लेकर पहुंची। रानी का हाल सुनकर उसे भी बहुत दुःख हुआ किन्तु इसमें किसी का क्या वश! कर्म और प्रारब्ध के लिखे को स्वयं ब्रह्‌मा भी नहीं मिटा सकते। रानी कर्मच्युत भी थी इसी कारण उसे दुःख भोगना पड़ा। इधर रानी पण्डितानी के इस वैभव और आठ पुत्रों को देख कर उससे मन में ईर्ष्या करने लगी तथा उसके मन में पाप उत्पन्न हुआ। उस ब्राह्‌मणी ने रानी का संताप दूर करने के निमित्त अपने आठों पुत्र रानी के पास छोड दिए। रानी ने पाप के वशीभूत होकर उन ब्राह्‌मणी पुत्रों की हत्या करने के विचार से लड्‌डू में विष मिलाकर उनको खिला दिया परन्तु भगवान शंकर की कृपा से एक भी बालक की मृत्यु न हुई। यह देखकर तो रानी अत्यन्त ही आश्चर्य चकित हो गई और इस रहस्य का पता लगाने की मन में ठान ली।

भगवान की पूजा से निवृत्त होकर जब भूषण देवी आई तो रानी ने उस से कहा कि मैंने तेरे पुत्रों को मारने के लिए इनको जहर मिलाकर लड्‌डू लिखा दिया किन्तु इनमें से एक भी नहीं मरा। तूने कौन सा दान, पुण्य, व्रत किया है। जिसके कारण तेरे पुत्र नहीं मरे और तू नित नए सुख भोग रही है। तेरा बड़ा सौभाग्य है। इनका भेद तू मुझसे निष्कपट होकर समझा मैं तेरी बड़ी ऋणी रहूंगी। रानी के ऐसे दीन वचन सुनकर भूषण ब्राह्‌मणी कहने लगी - सुनो तुमको तीन जन्म का हाल कहती हूं, सो ध्यान पूर्वक सुनना,

पहले जन्म में तुम राजा नहुष की पत्नी थी और तुम्हारा नाम चन्द्रमुखी था मेरा भद्रमुखी था और मैं ब्राह्‌मणी थी। हम तुम अयोध्या में रहते थे और मेरी तुम्हारी बडी प्रीति थी। एक दिन हम तुम दोनों सरयू नदी में स्नान करने गई और दूसरी स्त्रियों को सन्तान सप्तमी का उपवास शिवजी का पूजन अर्चन करते देख कर हमने इस उत्तम व्रत को करने की प्रतिज्ञा की थी। किन्तु तुम सब भूल गई और झूठ बोलने का दोष तुमको लगा जिसे तू आज भी भोग रही है। मैंने इस व्रत को आचार-विचार सहित नियम पूर्वक सदैव किया और आज भी करती हूं। दूसरे जन्म में तुमने बन्दरिया का जन्म लिया तथा मुझे मुर्गी की योनि मिली। भगवान शंकर की कृपा से इस व्रत के प्रभाव तथा भगवान को इस जन्म में भी न भूली और निरन्तर उस व्रत को नियमानुसार करती रही। तुम अपने बंदरिया के जन्म में भी भूल गई। मैं तो समझती हूं कि तुम्हारे ऊपर यह जो भारी संकट है उसका एक मात्र यही कारण है और दूसरा कोई इसका कारण नहीं हो सकता। इसलिए मैं तो कहती हूं कि आप सब भी सन्तान सप्तमी के व्रत को विधि सहित करिये जिससे आपका यह संकट दूर हो जाए।

लोमष ऋषि ने कहा- हे देवकी! भूषण ब्राह्‌मणी के मुख से अपने पूर्व जन्म की कथा तथा व्रत संकल्प इत्यादि सुनकर रानी को पुरानी बातें याद आ गई और पश्चाताप करने लगी तथा भूषण ब्राह्‌मणी के चरणों में पड़कर क्षमा याचना करने लगी और भगवान शंकर पार्वती जी की अपार महिमा के गीत गाने लगी। उस दिन से रानी ने नियमानुसार सन्तान सप्तमी का व्रत किया। जिसके प्रभाव से रानी को सन्तान सुख भी मिला तथा सम्पूर्ण सुख भोग कर रानी शिवलोक को गई। भगवान शंकर के व्रत का ऐसा प्रभाव है कि पथ भ्रष्ट मनुष्य भी अपने पथ पर अग्रसर हो जाता है और अनन्त ऐश्वर्य भोगकर मोक्ष पाता है।

लोमष ऋषि ने फिर कहा कि- देवकी! इसलिए मैं तुमसे भी कहता हूं कि तुम भी इस व्रत को करने का संकल्प अपने मन में करो तो तुमको भी सन्तान सुख मिलेगा। इतनी कथा सुनकर देवकी हाथ जोड कर लोमष ऋषि से पूछने लगी- हे ऋषिराज! मैं इस पुनीत उपवास को अवश्य करूंगी, किन्तु आप इस कल्याणकारी एवं सन्तान सुख देने वाले उपवास का विधान, नियम आदि विस्तार से समझाइये।
यह सुनकर ऋषि बोले- हे देवकी! यह पुनीत उपवास भादों भाद्रपद के महीने में शुक्लपक्ष की सप्तमी के दिन किया जाता है।
उस दिन ब्रह्‌ममुहूर्त में उठकर किसी नदी अथवा कुएं के पवित्र जल में स्नान करके निर्मल वस्त्र पहिनने चाहिए। श्री शंकर भगवान तथा जगदम्बा पार्वती जी की मूर्ति की स्थापना करें।
इन प्रतिमाओं के सम्मुख सोने, चांदी के तारों का अथवा रेशम का एक गंडा बनावें उस गंडे में सात गांठें लगानी चाहिए।
इस गंडे को धूप, दीप, अष्ट गंध से पूजा करके अपने हाथ में बांधे और भगवान शंकर से अपनी कामना सफल होने की प्रार्थना करें।
तदन्तर सात पुआ बनाकर भगवान को भोग लगावें और सात ही पुवे एवं यथाशक्ति सोने अथवा चांदी की अंगूठी बनवाकर इन सबको एक तांबे के पात्र में रखकर और उनका शोडषोपचार विधि से पूजन करके किसी सदाचारी, धर्मनिष्ठ, सुपात्र ब्राह्‌मण को दान देवें। उसके पश्चात सात पुआ स्वयं प्रसाद के रूप में ग्रहण करें।

इस प्रकार इस व्रत का पारायण करना चाहिए। प्रतिसाल की शुक्लपक्ष की सप्तमी के दिन, हे देवकी! इस व्रत को इस प्रकार नियम पूर्व करने से समस्त पाप नष्ट होते हैं और भाग्यशाली संतान उत्पन्न होती है तथा अन्त में शिवलोक की प्राप्ति होती है। हे देवकी! मैंने तुमको सन्तान सप्तमी का व्रत सम्पूर्ण विधान विस्तार सहित वर्णन किया है। उसको अब तुम नियम पूर्वक करो, जिससे तुमको उत्तम सन्तान पैदा होगी। 

इतनी कथा कहकर भगवान आनन्दकन्द श्रीकृष्ण ने धर्मावतार युधिष्ठिर से कहा कि - लोमष ऋषि इस प्रकार हमारी माता को शिक्षा देकर चले गए। ऋषि के कथनानुसार हमारी माता देवकी ने इस व्रत को नियमानुसार किया जिसके प्रभाव से हम उत्पन्न हुए। यह व्रत विशेष रूप से स्त्रियों के लिए कल्याणकारी है परन्तु पुरुषों को भी समान रूप से कल्याण दायक है। सन्तान सुख देने वाला पापों का नाश करने वाला यह उत्तम व्रत है जिसे स्वयं भी करें तथा दूसरों से भी करावें। नियम पूर्वक जो कोई इस व्रत को करता है और भगवान शंकर एवं पार्वती की सच्चे मन से आराधना करता है निश्चय ही अमरपद पद प्राप्त करके अन्त में शिवलोक को जाता है
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