PAID NEWS के कारण नरोत्तम होने से बचे

राकेश दुबे@प्रतिदिन। मध्यप्रदेश के जनसंपर्क मंत्री नरोत्तम मिश्रा के सिर पर 'पेड न्यूज' की गाज सबसे पहले गिरी। जी तोड़ संघर्ष के बाद वे राष्ट्रपति चुनाव में वोट नही डाल सके। पेड न्यूज़ की यह बीमारी पूरे देश में फैली है। संजीदा पत्रकारों {मालिक शामिल नही} ने हमेशा इसका विरोध किया है। यह मुद्दा भले ही काफी बाद में स्वरूप ग्रहण कर सका हो, प्रेस कौंसिल ऑफ इंडिया जैसी संस्था  इस तरह की आशंका पहले भी थी परन्तु  दुर्भाग्य, पेड न्यूज रोकने में प्रेस परिषद सफल नहीं हो पाई है, लेकिन इसे रोकने के लिए उसने भी कई प्रयास किए। वरिष्ठ पत्रकारों का मानना है कि पेड न्यूज को रोक पाने में प्रेस परिषद की नाकामयाबी का बड़ा कारण इस संस्था का खुद कमजोर होना रहा है। 

प्रेस परिषद के बारे में यह आम धारणा है कि यह बिना दांतों का शेर है। फिर भी सच्चाई यह है कि पेड न्यूज पर पत्रकारों की जिस कमेटी की हम बार-बार चर्चा करते हैं, वह इसी प्रेस काउन्सिल आफ इण्डिया ने ही गठित की थी। श्री पी.साईनाथ ने भारतीय प्रेस परिषद के समक्ष 13 दिसंबर 2009 और 27 जनवरी 2010 को अपने प्रतिवेदन में कहा कि पेड न्यूज अब एक संगठित उद्योग का रूप ले चुका है। यह कॉरपोरेट की ओर से नियंत्रित है देश के कुछ बड़े मीडिया समूहों के पूर्ण संरक्षण और भागीदारी से काम कर रहा है। इसके बाद प्रेस परिषद ने पेड न्यूज की बढ़ती प्रवृति को देखते हुए एक सब कमेटी गठित की। 

इस समिति में वरिष्ठ पत्रकार परंजय गुहा ठाकुरता और के. श्री निवास रेड्डी शामिल थे। इस समिति की रिपोर्ट खबर और विज्ञापन के बीच खत्म होते अंतर को सामने लाती है। प्रकाशक लॉबी के दबाव में इस रिपोर्ट को भी दबाने की कोशिश की गई। आखिरकार रिपोर्ट से वो हिस्सा हटा दिया गया जिसमें अखबारों का नाम लिया गया था। प्रेस कौंसिल ने अपने गठन के प्रारम्भ में ही पत्रकारों के लिए कुछ मानक तय कर दिए थे। सही मायनों पर उन पर अमल स्वाभाविक रूप से मीडिया को भटकने से काफी हद तक रोक सकता था। प्रेस कौंसिल ने चुनावी पत्रकारों के लिए कुछ दिशा निर्देश भी तय किए। इसके बाद भी बीमारी ज्योकी त्यों है। प्रेस कौंसिल से अलग कई अन्य संगठनों ने इस बुराई के खिलाफ आवाज उठाई। 

फाउंडेशन फॉर मीडिया प्रोफेशनल्स ने दिल्ली में एक गोष्ठी की थी। गोष्ठी का विषय था ‘ब्लरिंग द लाइन बिटविन न्यूज ऐंड एड’। गोष्ठी का संचालन परांजय गुहा ठाकुरता ने किया था। गोष्ठी में कहा गया कि “पिछले लोकसभा चुनाव में न्यूज स्पेस की खुले आम बिक्री हुई। अखबारों ने उम्मीदवारों के इंटरव्यू, रैली के समाचार, दौरों की रिपोर्ट और विरोधियों की निंदा छापने के लिए रेट तय कर दिए थे।नामचीन सम्पादक स्व.प्रभाष जोशी ने जब हिंदी समाचार-पत्रों में न्यूज के नाम पर किए गये पेड कवरेज के उदाहरण दिए तो सभी ने ध्यान से सुना। इस हो हल्ले के कारण ही अखबार और चैनल दबाव में आ गए और कई नामचीन और बड़े मीडिया घरानों को काफी शर्मिंदगी झेलनी पड़ी।

इस दबाव का ही नतीजा था कि कई अखबारों को बाद के कई चुनावों में बजाप्ता यह घोषणा करनी पड़ी कि वे अपने अखबार में पेड न्यूज नहीं छापेंगे। अब मीडिया संस्थानों ने पेड न्यूज को लेकर काफी सावधानी बरतनी शुरू कर दी। इसके विपरीत अभी हाल यह है मीडिया में पेड न्यूज के बढ़ते प्रचलन पर बहस तो जोरदार होती है और कई बड़े मीडिया घराने यह अभियान भी चलाते हैं कि उनके यहां पेड न्यूज का प्रचलन नहीं लेकिन चुनावों के समय सारे वादे धरे के धरे रह जाते हैं। तमाम कोशिशों के बावजूद पेड न्यूज बरकार है। बात साफ है कि पेड न्यूज पर हंगामे, विरोध, चुनाव आयोग और प्रेस कौंसिल की सक्रियता के बावजूद चुनावी पेड न्यूज जिन्दा है। कहा जाय तो बदले तौर-तरीकों के साथ और मोटा और मजबूत हुआ है। 

लगता है कि अखबारों और चैनलों को पेड न्यूज के खून का ऐसा स्वाद लग गया है कि उनकी भूख और बढ़ती ही जा रही है। अफसोस की बात यह है कि इस भूख ने उनसे सोचने-समझने की शक्ति छीन ली है। खबरों को बेचकर या खबरों को छुपाकर वे अपने पाठकों और दर्शकों के विश्वास के साथ धोखा कर रहे हैं। ऐसा करते हुए अपनी साख और विश्वसनीयता के साथ खेल रहे हैं। इस खेल में वे सिर्फ अपने धंधे और लोकतंत्र के चौथे खम्भे को ही दांव पर नहीं लगा रहे हैं बल्कि खुद लोकतंत्र के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। 

वह इसलिए कि लोकतंत्र में अपने प्रतिनिधि चुनने के लिए जनता के पास अपने राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के बारे में पूरी और सच्ची जानकारी होना जरूरी शर्त है? खास तौर से चुनावों के समय मीडिया से यह उम्मीद की जाती है कि वह जनता को सच्ची खबरें और विश्लेषण देगा। ऐसे में मीडिया जब पेड न्यूज जैसे गलत आचरण में लिप्त हो तो यह समझ लेना चाहिए कि यह लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नही है। पेड न्यूज आज पत्रकारिता की गंभीर बीमारी बन चुका है जिससे छुटकारा पाना पत्रकारिता के लिए बेहद जरूरी है। ऐसा इसलिए कि इसके कारण पत्रकारिता की विश्वसनीयता भी तो दांव पर लगी है। 
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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