लालू के कारणों से ही उनकी फिल्म पिटी

किसी फार्मूला हिंदी फिल्म की तर्ज़ पर नीतीश फिर बिहार के मुख्यमंत्री हो गये। इस कहानी में हीरो विलेन और विलेन हीरो हो गया। बिहार के लिए और न देश के स्तर पर, ऐसी कहानी का प्लाट कसा हुआ और दिलचस्प नहीं माना जाता, जिसके घुमावों और क्लाईमेक्स के बारे में पहले से पता हो। नीतीश ने एक ही स्ट्रोक में ‘साम्प्रदायिकता विरोधी’ राजनीति की जमीन पर ‘लार्जर दैन लाइफ’ खड़े लालू प्रसाद से यह श्रेय तो पहले ही छीन लिया था। 

लालू को अपने छीजते जनाधार को बनाये रखने और अनुभवहीन बच्चों को सयाना बनाने के लिए हर लिहाज से मुनासिब लगे, महागठबंधन बनने की यह पृष्ठभूमि थी, जिसका कोर मकसद ‘साम्प्रदायिक भाजपा’ को रोकना था। तब इसमें लालू की छाया कांग्रेस भी थी। चुनाव जीतने और साझा सरकार बनाने के बावजूद इसके चलने में सभी को संदेह कहानी की प्रस्तावना से ही था। अब नतीजा सामने है।

संदेह जीत गया और महागठबंधन फांक-फांक हो गया। पुराने अनुभवों के आधार पर सब यही मानते रहे कि जिस लालू की दबंगई और कुनबापरस्ती के चलते नीतीश उनसे छिटके थे, उसमें बदला क्या है? खुद नीतीश कहते थे, ‘अब किसी का स्वभाव भी बदला जा सकता है?’

वाकई लालू नहीं बदले। उनकी अपनी महत्त्वाकांक्षाओं और स्वार्थपूर्ति के आगे कानून को हाथ बांधे खड़े देखने की लत ज्यों की त्यों रही। इधर, नीतीश भाजपा के सहयोग काल में ही ‘सुशासन कुमार’ की अर्जित अपनी छवि से एक हद तक ही समझौतावादी हो सकते थे। बिखराव लाने वाला टकराव जब तक टल रहा था, तभी तक टला। तेजस्वी प्रकरण उसका निमित्त बन गया। 

लालू जैसा नेता इसको टाल सकता था और सरकार बचा सकता था, जिसकी सबसे ज्यादा जरूरत उनको ही थी। नीतीश की तरफ से संभलने-संभालने का पर्याप्त वक्त भी दिया गया। इसके बावजूद लालू अपनी आत्मघाती जिद पर अड़े रहे। इस दम पर कि वोटर उनके साथ हैं, लेकिन उनको यह याद रखना होगा कि इन्हीं वोटरों ने भ्रष्टाचार और अविकास का जिम्मेदार मान कर सत्ता से उन्हें बेदखल भी कर दिया था। अगर लालू आगे बने रहना चाहते हैं तो उन्हें प्रासंगिकता बनानी होगी और यह बनेगी रवैया बदलने से। नीतीश का भाजपा में जाना पहले से तय भी रहा हो पर उनको इस बार इसके लिए उकसाया लालू ने ही। बिहार की इस फिल्म के लेखक और मुख्य किरदार लालू ने अपनी फिल्म को पीट लिया।

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