ईसाई बनने के बाद भी दलितों को छुआछूत और भेदभाव का शिकार होना पड़ता है

आर.एल. फ्रांसिस। कैथलिक चर्च ने अपने ‘पॉलिसी ऑफ दलित इम्पावरन्मेंट इन द कैथलिक चर्च इन इंडिया’ रिपोर्ट में यह मान लिया है कि चर्च में दलितों से छुआछूत और भेदभाव बड़े पैमाने पर मौजूद है इसे जल्द से जल्द खत्म किए जाने की जरूरत है।’ दलित ईसाइयों को उम्मीद है कि भारत के कैथलिक चर्च की स्वीकारोक्ति के बाद वेटिकन आैर संयुक्त राष्ट्र में उनकी आवाज़ सुनी जाएगी।

दलित ईसाइयों को बड़े पैमाने पर छुआछूत और भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। यह किसी दक्षिणपंथी नेता का दावा नहीं है, बल्कि भारत के कैथलिक चर्च की स्वीकारोक्ति है। इतिहास में पहली बार भारत के कैथलिक चर्च ने यह स्वीकार किया है कि जिस छुआछूत और जातिभेद के दंश से बचने को दलितों ने हिंदू धर्म को त्यागा था, वे आज भी उसके शिकार हैं। वह भी उस धर्म में जहां कथित तौर पर उनको वैश्विक ईसाईयत में समानता के दर्जे और सम्मान के वादे के साथ शामिल कराया गया था।

देश में कैथलिक चर्च के कुल 2 करोड़ सदस्य हैं, इनमें से 1.60 करोड़ दलित ईसाई यानी हिंदू धर्म से बरगलाकर लाए गए लोग हैं। कैथलिक बिशप्स कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया द्वारा ‘पॉलिसी ऑफ दलित इम्पावरन्मेंट इन द कैथलिक चर्च इन इंडिया’ नाम से प्रकाशित 44 पेज की रिपोर्ट के मुताबिक, ‘चर्च में दलितों से छुआछूत और भेदभाव बड़े पैमाने पर मौजूद है। इसे जल्द से जल्द खत्म किए जाने की जरूरत है।’ कैथलिक चर्च की रिपोर्ट में कहा गया है कि दलितों के साथ अन्याय हो रहा है और चर्च में बदलाव की जरूरत है ताकि उन्हें पर्याप्त अधिकार दिए जा सकें।

यह रिपोर्ट शायद उन लोगों की आंखें खोल सके, जो ईसाई मिशनरियों के धर्मांतरण को देखना नहीं चाहते। वामपंथी और कुछ दलित चिंतक अक्सर कहते हैं कि जो हिंदुत्व दलितों को बराबरी नहीं दे सकता, उससे निकल जाना ही बेहतर है। इस रिपोर्ट के बहाने उन्हें यह बताना चाहिए कि आखिर वे हिंदुत्व से निकलकर भी दलदल में क्यों हैं? इसी रिपोर्ट में कैथलिक चर्च ने दोहराया है कि हम लंबे समय से दलित ईसाइयों को आरक्षण दिलाने के लिए लड़ रहे हैं और यह उन्हें मिलना ही चाहिए। रिपोर्ट में सुप्रीम कोर्ट की ओर से दलित ईसाइयों को आरक्षण दिए जाने की मांग को खारिज किए जाने की भी आलोचना की गई है। 

चर्च नेतृत्व दलित ईसाइयों को अनुसूचित जातियों की श्रेणी में शामिल कराने के लिए भारत सरकार पर लगातार दबाव डालता रहा है। भारतीय चर्च नेतृत्व पिछले कई दशकों से अनुसूचित जातियों से ईसाइयत में दीक्षित होने वालों के लिए हिंदू मूल के अनुसूचित जातियों के समान ही सुविधाओं की मांग करता आ रहा है। इसलिए कि धर्म बदलते ही अनुसूचित जाति वालों की वे तमाम सुविधाएं ख़त्म हो जाती हैं जो उन्हें हिंदू रहते हुए उपलब्ध होती हैं। इस कारण अनुसूचित जातियों से ईसाइयत में दीक्षित होने वालों की संख्या उनकी आबादी के हिसाब से आदिवासी समूहों के मुक़ाबले बहुत कम है।

भारत में धर्मांतरण दो कारणों से हुआ है। पहला-सामाजिक-आर्थिक विसंगतियों एवं शोषण के ख़िला़फ विक्षोभ तथा दूसरा, लाभ के लिए व्यक्तिवादी सोच। जातिवादी व्यवस्था एवं सामाजिक उत्पीड़न-शोषण से मुक्ति की आशा में ही बड़ी संख्या में अनुसूचित जातियों के लोगों ने ईसाइयत की दीक्षा ली। माना गया कि ईसाइयत में किसी भी प्रकार के जातिवादी भेदभाव या शोषण के लिए कोई स्थान नहीं है। लेकिन चर्च नेतृत्व ने मुक्ति की आशा में आए लोगों को महज़ एक संख्या ही माना और उनके विकास पर ध्यान देने की जगह वह अपना साम्राज्य बढ़ाने में लगा रहा। धर्मांतरित ईसाइयों की इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि जिस चर्च नेतृत्व पर उन्होंने विश्वास करते हुए अपने पूवर्जों के धर्म तक का त्याग कर दिया, उसी चर्च नेतृत्व ने उनकी आस्था के साथ विश्वासघात करते हुए उन्हें वापस उसी जातिवादी व्यवस्था में धकेलने का बीड़ा उठा लिया है।

चर्च नेतृत्व ने वंचित वर्गो के बीच अपना आधार ही इस प्रलोभन के तहत बढ़ाया कि ईसाइयत के बीच जाति भेदभाव नहीं है और ईसाई धर्म के बीच दलितों से मत परिवर्तित करके ईसाइयत अपनाने वाले लोगों के साथ समानता का व्यवहार किया जाएगा। ईसाई समाज में समानता के इस स्थान की झूठी आशा में ही दलितों ने ईसाई धर्म अपनाया। दलित ईसाइयों के संगठन पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट का मानना है कि यदि चर्च की पूरी शक्ति दलित ईसाइयों के पीछे लगा दी जाए, तो उनके सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में बड़ा परिवर्तन लाया जा सकता है। धर्म परिवर्तन के नाम पर विदेशों से भेजी जा रही अकूत धनराशि का सदुपयोग यदि उनके विकास पर ख़र्च किया जाए तो उनके जीवन में परिवर्तन लाया जा सकता है, लेकिन सत्य कुछ और ही है। चर्च केवल अपने अनुयायियों की संख्या बढ़ाने के उद्देश्य को ही सर्वोपरि रखता है।

अब जब कैथलिक बिशप्स कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया ने अपने ‘पॉलिसी ऑफ दलित इम्पावरन्मेंट इन द कैथलिक चर्च इन इंडिया’ नाम से प्रकाशित रिपोर्ट में यह मान लिया है कि चर्च में दलितों से छुआछूत और भेदभाव बड़े पैमाने पर मौजूद है ताे उसे ईमानदारी से यह भी मान लेना चहिए कि जस्टिस रंगनाथ मिश्र की अध्यक्षता वाले राष्ट्रीय, भाषायी और अल्पसंख्यक आयोग की स़िफारिशों को अगर सरकार मानकर दलित ईसाइयों को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल कर भी लेती है, तो इसका लाभ चर्च नेतृत्व को ही होगा। देश में पहले से जारी धर्मपरिवर्तन के कार्य में बहुत तेज़ी आएगी. अगर ऐसा हुआ तो देश में अनावश्यक तनाव भी बढ़ेगा। दलित ईसाइयों को अनुसूचित जाति का दर्जा मिल जाने से ही उन्हें समानता नहीं मिल जाने वाली।

पिछले दिनों दलित ईसाइयों (धर्मांतरित ईसाइयों) के एक प्रतिनिधिमंडल ने संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून के नाम एक ज्ञापन देकर आरोप लगाया कि कैथोलिक चर्च और वेटिकन दलित ईसाइयों का उत्पीड़न कर रहे है। जातिवाद के नाम पर चर्च संस्थानों में दलित ईसाइयों के साथ लगातार भेदभाव किया जा रहा है। उन्हें चर्च में बराबर के आधिकार उपलबध कराए, अगर वह ऐसा नहीं करते है, ताे संयुक्त राष्ट्र में वेटिकन को मिले स्थाई अबर्जवर के दर्जें को समाप्त कर दिया जाना चाहिए।

ईसाई संगठन पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट ने कैथोलिक बिशप कांफ्रेस ऑफ इंडिया, पोप जॉन पॉल, पोप बेनडिक्ट सोहलवें और वर्तमान पोप फ्रांसिस को कई बार पत्र लिखकर मांग की है कि करोड़ों धर्मांतरित इसाईयों के साथ किये गये अन्याय एवं शोषण के बदले कैथोलिक चर्च उन्हें मुआवजा दे, जैसे वेटिकन ने कई देशों में चर्च पदाधिकारियों की चर्च अनुयायियों के साथ हुईं ज्यादतियों के बदले में दिया है। दलित ईसाइयों को उम्मीद है कि भारत के कैथलिक चर्च की स्वीकारोक्ति के बाद वेटिकन आैर संयुक्त राष्ट्र में उनकी आवाज़ सुनी जाएगी।

आर.एल. फ्रांसिस
अध्यक्ष, पुअर क्रिश्चियन लिबरेशन मूवमेंट
Email: pclmfrancis@gmail.com
Ph. 9810108046

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