देश के प्रमुख मुद्दों पर ज्योतिरादित्य सिंधिया का विशेष इंटरव्यू

ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस में तेजी से आगे बढ़ रहे युवा नेता हैं। वो मप्र में सीएम कैंडिडेट के दावेदार भी हैं। एक बड़ा वर्ग सिंधिया का पसंद करता है और एक बड़ा वर्ग सिंधिया होने के कारण उनका विरोध करता है। इस समय यह जानना जरूरी है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया की अपनी विचारधारा क्या है। वो देश के विभिन्न विषयों पर क्या सोचते हैं। पिछले दिनों लखनऊ में आयोजित ‘हिन्दुस्तान शिखर समागम’ में हिंदुस्तान अखबार के प्रधान संपादक शशि शेखर ने कई मुद्दों पर उनसे खुलकर बातचीत की। प्रस्तुत है इस बातचीत के मुख्य अंश-

आपने गीता के कर्मफल के सिद्धांत की बात कही। कांग्रेस की दशा, दिशा और मौजूदा प्रयासों को आप किस रूप में देखते हैं? क्या फल की चिंता कांग्रेस में कहीं पीछे हो गई है?    
हरेक राजनीतिक दल में उतार-चढ़ाव आता है। यह नहीं भूलना चाहिए कि कांग्रेस 10 साल तक लगातार सत्ता में रही। जरूर कोई कमी रही होगी। अब कांग्रेस विपक्षी दल की भूमिका में अपना काम बखूबी कर रही है। प्रजातंत्र के मंदिर से लेकर गांव-गलियों तक जनता की आवाज उठा रही है। मैं समझता हूं कि यही पार्टी का कर्तव्य भी है।    

पार्टी नौजवानों को कब अवसर देगी? यह सवाल खुद राहुल गांधी को पार्टी का नेतृत्व सौंपे जाने की मांग से भी जुड़ा है?    
मैं नहीं मानता कि इस देश को नौजवानों व वृद्धों में बांटना ठीक है। मैं खुद भी अब न तो नौजवान हूं और न ही वृद्ध। मेरा मानना है कि कांग्रेस ही नहीं, सभी राजनीतिक दलों में काबिलियत के आधार पर जिम्मेदारी दी जानी चाहिए। बहुत से युवा वृद्धों की तरह सोचते हैं और बहुत से वृद्ध युवाओं की तरह सोचते हैं और अपने कार्यो से समाज को बेहतर परिणाम दे रहे हैं। जहां तक नेतृत्व परिवर्तन की बात है, तो यह मांग पिछले 10-15 वर्षो से मैं भी सुनता आ रहा हूं। इस मामले में पार्टी अपनी रीति-नीति के अनुसार सही समय पर फैसला लेगी।

आप असहिष्णुता के आधार पर देश में विभाजन की कोशिश की बात कर रहे हैं। यही बात अखिलेश यादव भी कहते हैं। विचारों में समानता है। ‘हिन्दुस्तान टाइम्स समिट’ में पिछली बार अखिलेश ने कांग्रेस को एक ‘ऑफर’ भी दिया था, फिर भी कांग्रेस और सपा का गठबंधन नहीं हो पा रहा? एक विचारधारा के लोग एकतरफ हों और दूसरी विचारधारा के लोग दूसरी तरफ। इससे जनता को चुनाव करने में आसानी नहीं होगी? 
पहले अखिलेश यादव ने यहीं से ‘ऑफर’ किया था। हम सबने सुना भी था। आज यहां इस मंच से वह कुछ और कह रहे हैं। वह कह रहे हैं कि मैं यूपी में ही खुश हूं। शायद उनके मन में कुछ और बात हो या किसी रणनीतिकार ने उनसे कहा हो कि अभी अपने मन की बात मत कहो। जहां तक असहिष्णुता की बात है, तो सवाल यह है कि देश में असहिष्णुता का वातावरण क्यों है? इसका मुख्य कारण यह है कि जिम्मेदार लोग जब अहम पदों पर बैठकर गैर-जिम्मेदार वक्तव्य दें और उनको टोका भी न जाए, तो फिर वही बीमारी कैंसर की तरह जमीन तक पहुंच जाती है। इसके कई उदाहरण पिछले ढाई वर्षो में हमने देखे। एक सांसद हैं, जो नाथूराम गोडसे को देशभक्त बताते हैं।

केंद्र सरकार के मंत्री जनरल वीके सिंह आत्महत्या करने वाले पूर्व सैनिक को मानसिक रूप से असंतुलित बताते हैं। हम नेताओं को अपनी आत्मा की आवाज के आधार पर भी चर्चा करनी चाहिए। मैं मानता हूं कि राजनीति मेरे पिता को भी नहीं आती थी और मुझे भी नहीं आती। मैं मानता हूं कि जिंदगी में जो सही हो, उसे सही कहो। इससे अगर राजनीतिक रूप से नुकसान भी होता, तो होने दो।

हमने सुना कि आप व अखिलेश यादव एक-दूसरे को पहले नाम से पुकार रहे हैं, क्या आप कभी साथ बैठकर देश के 10 बड़े मुद्दों पर बात करेंगे?    
अखिलेश मेरे मित्र हैं। 30-40 साल पहले उनके पिता और मेरे पिता और मेरी दादी साथ में लोकसभा में होते थे। अब मैं उनके पिता के साथ लोकसभा में हूं। संसद में पहले नीतियों की जबरदस्त आलोचना होती थी, तीखे सवाल होते थे, लेकिन लोगों के आपस के रिश्ते बहुत अच्छे होते थे। आज विभाजन काफी तीखा हो चुका है। फिर भी कोशिश जरूर होनी चाहिए। 

पिछले 32 वर्षो में राजनीतिक मूल्यों की स्थिति आपको कहां तक पहुंचती नजर आती है?
गिरावट आई है। हम लोग कौन हैं? जनता के बीच से ही तो आते हैं? उन्हीं के प्रतिनिधि हैं। फिर भी मूल्यों और सिद्धांतों को बचाकर रखना होगा। और इसकी शुरुआत ऊपर से ही होगी। चाहे मुख्यमंत्री के रूप में अखिलेश यादव हों या सांसद के रूप में मैं..। अब जिम्मेदारी हमारी है कि हम उसे आने वाली पीढ़ी को संचरित कर पाएं। 

 टेलीविजन पर लोकसभा और राज्यसभा की बहसों को देखकर निराशा होती है। अच्छी बहस करने वाले कम ही लोग दिखते हैं। क्या इस स्थिति में सुधार होगा?    
मुझे मूल्यों-मान्यताओं पर पूरा भरोसा है, इसलिए मैं आशावादी हूं। मैं राजनीतिज्ञ शब्द को ठीक नहीं मानता, जनसेवक ज्यादा उपयुक्त है। हमारे देश में कई जनसेवक हैं, जो अच्छी बहस करते हैं और अपने क्षेत्र में वे बहुत अच्छा काम भी कर रहे हैं।

क्या जन प्रतिनिधियों के रिटायरमेंट की उम्र नहीं होनी चाहिए?    
मैं जैन समाज का बहुत बड़ा प्रशंसक हूं। मैं उनके दो नियमों से काफी प्रभावित हुआ। पहला नियम है- ‘जियो और जीने दो’। हम राजनीति में अपने विरोधी को जीने नहीं देते। दूसरा है- ‘क्षमावाणी’ का पर्व, जो साल में एक बार आता है। इस पर्व पर जैन समाज के लोग जाने-अनजाने में हुई गलतियों के लिए माफी मांगते हैं। राजनीति में भी इस तरह के नियमों का पालन होना चाहिए। राजनीति से उम्र का कोई संबंध नहीं है। जब तक कोई नेता अपने क्षेत्र की जनता से जुड़ा रहता है, उससे उसकी जनता का लगाव बना रहता है और वह विकास के लिए प्रतिबद्ध होकर काम कर सकता है, तब तक वह राजनीति में बना रह सकता है।

काला धन पर लगाम के लिए नोटबंदी को किस रूप में देखते हैं?
मैं भ्रष्टाचार का कठोर विरोध करता हूं। इसे मिटाने के लिए हरसंभव प्रयास किए जाने चाहिए। हम सरकार के इस कदम का भी स्वागत करते हैं, लेकिन जिस तरह से आम जनता को कठिनाई हो रही है, वह काफी दुखद है। देश की 90 फीसदी जनता परेशान है। जिस समय मोरारजी देसाई ने 500 के नोट बंद किए थे, उस वक्त देश में ऐसे नोट महज दो प्रतिशत थे। आज ये 86 फीसदी हैं। सवाल यह है कि सरकार ने नोटों की उत्पादन क्षमता क्यों नहीं बढ़ाई? नौकरी करने वाला आदमी चार-चार घंटे लाइन में कैसे खड़ा रह पाएगा? नोट बदलने के लिए बैंकों में लगी लंबी-लंबी कतारें दुर्भाग्यपूर्ण हैं। इससे सरकारी तंत्र की विफलता सामने आती है। काला धन अभिशाप है, देश को उससे मुक्त कराना होगा, लेकिन इसमें देश की निर्दोष जनता का ध्यान जरूर रखा जाना चाहिए।

आपको नहीं लगता कि इस मामले में कांग्रेस का विरोध प्रतीकात्मक है। राहुल गांधी खुद कतार में खड़े होकर नोट बदलते हैं?
ऐसा नहीं है। कांग्रेस हमेशा जनता के दुख-दर्द के साथ खड़ी होती आई है। कांग्रेस ने पूरे देश में गरीबों और किसानों की लड़ाई लड़ी। भूमि अधिग्रहण बिल के खिलाफ संघर्ष इसका एक बड़ा उदाहरण है। 

गांव वीरान हो रहे हैं। क्या कांग्रेस ऐसी कोई नीति बनाने की बात करेगी, जिससे कृषि अर्थव्यवस्था नया आकार ले सके?
जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान मात्र 14 प्रतिशत है, लेकिन वह 68 प्रतिशत को रोजगार मुहैया कराता है। कांग्रेस पार्टी ने अच्छा न्यूनतम समर्थन मूल्य देने के अलावा मनरेगा जैसी योजना शुरू करके गांवों को खुशहाल बनाने की कोशिश की। आज शहरीकरण इसलिए बढ़ रहा है, क्योंकि लोग अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं देना चाहते हैं। ये सुविधाएं अभी केवल शहरों में उपलब्ध हैं। इनको गांवों तक भी पहुंचाना होगा। खाद्य प्रसंस्करण के क्षेत्र में काम करना होगा। अमूल का मॉडल देखिए। इससे पता चलता है कि यदि सहकारिता का मॉडल हम खाद्य प्रसंस्करण में अपनाएं, तो निश्चित रूप से व्यापक सुधार होगा। खुद मेरे संसदीय क्षेत्र का एक उदाहरण मिसाल बन सकता है। मेरे संसदीय क्षेत्र में चंदेरी साड़ियां बनती हैं। लगभग 10 हजार बुनकर इस काम में लगे हुए हैं। जब मैं यूपीए सरकार में सूचना-प्रौद्योगिकी विभाग का मंत्री था, तो मैंने क्षेत्र के एक बुनकर विकास केंद्र में अत्याधुनिक मशीनें लगवा दीं। जब देश में कॉमनवेल्थ गेम्स हो रहे थे, तब पट्टे के डिजाइन के लिए प्रतियोगिता कराई गई। लोगों को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि चंदेरी साड़ी के कारोबार से जुड़े उसी केंद्र पर प्रशिक्षण ले रहे 16 साल के एक लड़के ने यह प्रतियोगिता जीती। 

आपके हिसाब से और कौन से उपाय जरूरी हैं?    
नौकरियां देने पर ध्यान देना होगा। केवल शिक्षा मुहैया कराने और लैपटॉप दे देने से काम नहीं होगा। स्किल डेवलपमेंट जरूरी है, जिससे युवाओं को नौकरियां मिल सकें। ऐसी डिग्रियां भला किस काम की, जो रोजगार न दिला सकें। हमें यह भी देखना होगा कि हमारे पॉलीटेक्निक संस्थान कितने उपयोगी साबित हो पा रहे हैं? शिक्षा का उद्योगों से ‘कनेक्शन’ बहुत जरूरी है। मोदी सरकार ने प्रतिवर्ष दो करोड़ नौकरियां देने का वायदा किया था, जबकि वर्ष 2015 में केवल 4.35 लाख नौकरियां दी जा सकीं। वर्ष 2016 में यह आंकड़ा महज 1.35 लाख के आसपास रहने का अनुमान है। जाहिर है कि हमारे युवा साथी दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं।.. इसी तरह, अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिए देश के किसानों की हालत में भी सुधार करना होगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सब्जियों और दूध के उत्पादन में पहले और खाद्यान्न के उत्पादन में दुनिया में तीसरे नंबर पर आने वाले इस देश के किसान आत्महत्या कर रहे हैं। आज एक डॉक्टर का बेटा डॉक्टर, इंजीनियर का बेटा इंजीनियर, आईएएस का बेटा आईएएस और नेता का बेटा नेता बनना चाहता है, लेकिन किसी किसान का बेटा किसान नहीं बनना चाहता। मेरे विचार से देश की मजबूती के लिए स्थिरता, सांप्रदायिक सद्भाव, आजीविका और मजबूत अर्थव्यवस्था चार प्रमुख स्तंभ हैं। स्थिरता के लिए सहिष्णुता जरूरी है। लोगों के बीच हर हाल में विचारों का आदान-प्रदान होना चाहिए। इसमें मतभेद हो सकते हैं, लेकिन मनभेद नहीं होने चाहिए।

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