
पर कहा यही जा रहा कि नेताजी जो कहेंगे, मानेंगे आम परिवार में ऐसा संभव हो जाता है पर किसी सत्ताधारी परिवार में एकता हितों के न्यायसंगत विभाजन के बिना संभव नहीं होती। वैसे में तो और भी मुश्किल होती है, जब एक पक्ष को अपनी साबित सांगठनिक क्षमता पर अभिमान हो और दूसरे को अपने नेक काम और साफ छवि की अवधारणा का। पार्टी के संदर्भ में इन दोनों का योगफल सरकार है शिवपाल यादव और अखिलेश यादव इसे समझते नहीं होंगे, मानना कठिन है।
फिर भी अगर अपनी-अपनी हैसियत को लेकर इतने तल्ख हैं कि लचीले होते नहीं दिख रहे तो इसका मतलब यही है कि मध्यस्थकार के बावजूद उन्हें उनके हितों की सुनिश्चितता नहीं दिख रही है। अगर बर्खास्त मंत्री बहाल हो जाएं, शिवपाल के विभाग लौटा दिये जाएं, ‘बाहरी व्यक्ति’ बाहर कर दिया जाए और अखिलेश को फैसले करने के हक दिये जाएं तो भी यह संकट पर स्थायी विराम की गारंटी शायद ही होगी।
इसलिए कि संबंधों में संदेह और अविश्वास के सिर उठाने की आदत पकी हुई मालूम पड़ती है। ऐसे में, आगे किसी व्यवस्था के तहत मेल-मिलाप हो जाए तो भी वह कामचलाऊ होगा। अगर भाई-भाई और चाचा-भतीजे के घने रिश्तों की दुहाई के मूल में वही सहज मिठास-अहसास न रहे। फिर तो यह स्थिति न तो परिवार, पार्टी और न ही सरकार के हक होगी।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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