देश के 400 जिलों में भूजल जहरीला हो रहा है

राकेश दुबे@प्रतिदिन। भूजल विकास और प्रबंधन पर जल संसाधन मंत्रालय की संसदीय सलाहकार समिति की बैठक में रखी गई रिपोर्ट के आंकडे़ कह रहे है कि देश के चार सौ से ज्यादा जिलों में भूजल स्तर लगातार जहरीला होता गया है और इन इलाकों में फ्लोराइड, आर्सेनिक, नाइट्रेट, आयरन, सीसा, सोडियम, क्रोमियम जैसे जीवन के लिए घातक रसायन पाए गए हैं। सबसे गंभीर बात यह है कि ज्यादातर प्रभावित इलाकों के लिए यह सच नया नहीं है और यह भी कि इन इलाकों में पीने के साफ पानी का दूसरा कोई विकल्प नहीं है। यहां के लोग, खासकर बच्चे गंभीर बीमारियों का शिकार हो रहे हैं, जबकि हमारी सरकारें लगातार इन बीमारियों पर अरबों खर्च करने का दावा करती आ रही हैं। यहां यह बताने की जरूरत नहीं कि पानी में आर्सेनिक की अधिकता और लंबे समय तक ऐसे पानी का सेवन त्वचा कैंसर देने के साथ ही फेफड़े और किडनी भी खराब कर देता है। यह तो हम बचपन से सुनते आ रहे हैं कि पानी में फ्लोराइड की अधिकता दांतों ही नहीं, शरीर की हड्डियों को भी गला देती है, लेकिन हम आज भी इसी सुनी हुई कहानी के साथ जीने को विवश हैं। कई इलाकों में तो कई-कई पीढ़ियों ने इसके दुष्प्रभाव झेले हैं।

विश्व के 25 देशों की 20 करोड़ से ज्यादा आबादी फ्लोराइड से होने वाले असर फ्लोरोसिस से पीड़ित है और भारत व चीन इसके सबसे ज्यादा शिकार हैं। अपने देश में राजस्थान, तेलंगाना, कर्नाटक, आंध्र, केरल, महाराष्ट्र, बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और गुजरात इससे सर्वाधिक प्रभावित हैं। ये राज्य फ्लोराइड के साथ ही नाइट्रेट और आर्सेनिक की अधिकता का भी रोना रो रहे हैं। गांवों की तो बात छोड़िए, शहरी क्षेत्र का भी बुरा हाल है। पेयजल की शुद्धता का आलम यह कि वाटर प्यूरीफायर का धंधा चलाने वाली कंपनियों ने कई इलाकों में अपनी सेवाएं देने से इनकार कर दिया या अपनी सेवा की दर बढ़ा दी है। कानपुर-उन्नाव के बड़े इलाके में आर्सेनिक के कारण विकलांगता और गोरखपुर में जल जनित बीमारी से बच्चों की मौत न खत्म होने वाला सिलसिला बन चुकी हैं। इन इलाकों में सरकारी मानक वाले हैंडपंप भी कई बार फेल साबित हुए।

आखिर इस समस्या का समाधान क्या है? इस दिशा में अब तक हुए प्रयास पर्याप्त हैं? हमें ये जरूरी सवाल खुद से और सरकारों से पूछने होंगे। हमारी सरकारें आजादी के बाद से ही इस पर काम तो करती रहीं, लेकिन यह भी उतना ही बड़ा सच है कि जिस एकीकृत तरीके से काम होना चाहिए था, वह कभी नहीं हुआ। हम चांद पर पहुंच गए, रॉकेट भी छोड़ लिए, डिजीटल भी हो गए, लेकिन मूलभूत सुविधाओं के मामले में आज भी निचले पायदान पर खडे़ हैं। 1987 में पहली बार राष्ट्रीय जल नीति बनने और 2002 में इसका नया खाका तैयार होने के बाद से अब तक लगातार बहस जारी है, लेकिन सच यही है कि हम न तो गांवों, और न ही शहरों में साफ पानी की उपलब्धता सुनिश्चित कर पाए। शिक्षा के मूल अधिकार और स्कूल चलो का नारा तो दे दिया, पर सरकारी स्कूलों में भी न स्वच्छ पेयजल दे पाए, न साफ शौचालय। सरकारी अस्पतालों का हाल तो और बुरा है, जबकि हमारी जल नीति की प्राथमिकता सूची में इसे सबसे ऊपर होना चाहिए था। आज गंगा निर्मलीकरण और स्वच्छ भारत मिशन के अंतर्गत खुले में शौच को खत्म करने के लिए हम बस अभियान चला रहे हैं। सुनने में तो यह सब अच्छा लगता है, लेकिन सच की जमीन पर नजर डालने के बाद पता चलता है कि हालात सामने दिखते सच से भी ज्यादा भयावह हैं।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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