जी हां, काला झंडा। ये भारत का वो इलाके हैं जहाँ लोकतंत्र नहीं बल्कि लालतंत्र चलता है। इन इलाकों तक हमारी सरकारें आजादी के 7 दशक बाद भी नही पहुँच पाईं हैं। इन इलाकों में माओवादियों की तूती बोलती है। उन्हीं की जनताना सरकार की हुकूमत चलती है। इन इलाकों के आदिवासी आज भी माओवादियों की गुलामी करने को विवश हैं। यह इलाका छत्तीसगढ़ राज्य में आता है।
बीजापुर के तर्रेम, पुसबाका, कैका, ताकिलोड़, कंचाल, तारुड़ और सुरनार समेत 50 से भी अधिक गांव ऐसे हैं, जहां राष्ट्रीय पर्व नहीं मनाया जाता, बल्कि सशस्त्र माओवादियों के खौफ के कारण इसका विरोध किया जाता है। इन इलाकों में संचालित स्कूल, आश्रम, आंगनबाड़ी और हॉस्पिटल में स्वतंत्रता दिवस के दिन माओवादी काला झंडा फहराकर स्वतन्त्रता दिवस और राष्ट्रीय ध्वज का विरोध करते हैं।
इन इलाकों में पदस्थ शासकीय कर्मचारी भी माओवादियों की बन्दूक की नोक पर विवश होकर अपनी मौन सहमति दे देते हैं। ग्रामीणों के मुताबिक जब कभी कोई माओवादियों के इस फरमान का विरोध कर तिरंगा फहराता है, तो उसे सजा के तौर पर माओवादी सीधे मौत के घाट उतार देते हैं।
आदिवासी अंचलों में अध्ययनरत छात्र भी राष्ट्रीय ध्वज फहराकर, राष्ट्रीय गान गाकर, देश को आज़ादी दिलाने के लिए शहीद हुए क्रांतिकारियों को याद कर बड़े ही जोश और जूनून के साथ स्वतंत्रता दिवस के पर्व को मनाना चाहते हैं, मगर माओवादियों के खौफ के आगे उनकी इन इच्छाओं की बलि चढ़ जाती है और स्कूल में फहरता है काला झंडा, गाए जाते हैं माओवादियों के गीत।
15 अगस्त हो या 26 जनवरी, हर राष्ट्रीय पर्व पर इन इलाकों में सुबह से ही सशस्त्र माओवादी स्कूलों, आश्रमों, पंचायत भवनों या हॉस्पिटल में पहुँच जाते हैं और राष्ट्रीय पर्व का विरोध करते हुए सरकारी संस्थानों पर काला झंडा फहरा देते हैं।
ऐसा नहीं है कि राष्ट्रीय पर्व पर अंदरूनी इलाकों में माओवादियों के काला झंडा फहराए जाने की सूचना पुलिस को नहीं है। पुलिस के मुताबिक 15 अगस्त और 26 जनवरी को अधिकांश अंदरूनी इलाकों में गश्त सर्चिंग के लिए उपलब्ध सुरक्षा बल के जवानों को रवाना किया जाता है और ये जवान उन इलाकों में ग्रामीणों को एकत्र कर तिरंगा झंडा फहराते हैं, मगर कुछ इलाके ऐसे भी रह जाते हैं, जहां तक पुलिस नही पहुँच पाती। उन इलाकों में माओवादी काला झंडा फहराकर स्वतन्त्रता दिवस का विरोध करते हैं।