
यूँ तो इस सरकार की आरंभिक दिनों से नीति रही है कि अलगाववादियों से बातचीत नहीं होगी। अभी तक सरकार उस पर कायम दिखती है किंतु जो वर्तमान परिस्थिति है, उनमें किसी से भी बातचीत का क्या परिणाम आ सकता है? ये परिस्थितियां उन शक्तियों द्वारा पैदा नहीं की गई हैं, जो भारतीय संविधान को मानते हैं या लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेते हैं। यह स्थिति तो हिज्बुल मुजाहीद्दीन के आतंकवादी कमांडर बुरहान वानी और उसके दो साथियों के मुठभेड़ में मारे जाने के बाद पैदा हुई है।
आतंकवादी के मारे जाने से जिन लोगों के अंदर गुस्सा पैदा हुआ वे कौन हो सकते हैं? उस गुस्से में जो पत्थरों और अन्य तरीकों से सुरक्षा बलों पर हमले कर रहे हैं, पुलिस पोस्टों पर आगजनी कर रहे हैं; उन्हें क्या कहा जा सकता है? वे कश्मीर में शांति और सद्भाव के समर्थक तो नहीं हो सकते. इसलिए जो लोग मौजूदा हालात का राजनीतिक समाधान करने का सुझाव दे रहे हैं, वे कटु सच को नकार रहे हैं। ऐसी स्थितियों का समाधान सुरक्षा कार्रवाइयों से ही हो सकता है. क्या कश्मीर में हिंसा करने वाले आतंकवादियों को मारा जाना गलत है? अगर नहीं तो फिर इनके समर्थन में जो हिंसा कर रहे हैं, उनसे किस तरह निपटा जाना चाहिए?
पत्थरों से हमला सीधी हिंसा है और यह किसी कानून के राज में अस्वीकार्य है। इसलिए ऐसे लोगों से सुरक्षा बल कड़ाई से निपटें, इनको पराजित करें तथा इसके माध्यम से कश्मीर में शांति बहाल हो; यही एकमात्र रास्ता देश को स्वीकार हो सकता है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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