
तकरीबन 90 सालों से पारले-जी स्वाद और बिस्कुट बाजार की दुनिया में लोगों की जुबान पर छाया रहा है। पारले-जी के पैक पर बच्चे की छपी तस्वीर आज भी लोगों के जेहन में वैसे ही बनी है। कंपनी उस बच्चे की तस्वीर का उपयोग सालों से अपने प्रचार के लिए विज्ञापन की दुनिया में करती आ रही थी।
पारले ने कभी अपना लोगो नहीं बदला. पैक पर छपा मासूम सा बच्चा आज भी पारले-जी की पहचान है। गरीब और आम परिवारों में दिन की शुरुआत पारले से होती है। बच्चों से लेकर बड़ों तक की यह पहली पसंद बना। कभी-कभी सामान्य और आम परिवारों में समय से भोजन उपलब्ध न होने से बच्चे और कामकाजी लोग चाय और पारले के साथ ही काम चला लिया करते रहे हैं।
बेहद कम कीमत में पारले ने आम हिंदुस्तानियों को जिस तरह के स्वाद की दुनिया से परिचय कराया, वह बात और दूसरों में नहीं मिली। बिस्कुट की दुनिया में हजारों ब्रांड उपलब्ध हैं, लेकिन जितना नाम इस कंपनी ने कमाया शायद उतना किसी ने नहीं। कम कीमत और स्वाद में बेजोड़ होने के कारण यह आम भारतीयों से जुड़ गया था और इसने अपनी क्वालिटी बरकरार रखी।
कहा यह जा रहा है कि जिस गति से मुंबई विकास की तरफ बढ़ी उस गति से पारले-जी यानी कंपनी आगे नहीं बढ़ पाई। ऐसे में सवाल उठता है कि 90 साल पुरानी जिस कंपनी का सालाना करोबार 10 हजार करोड़ रुपये का रहा हो, उस कंपनी को भला घाटा कैसे होगा?
बिस्कुट बाजार में अकेले पारले-जी की बाजार हिस्सेदारी 40 फीसदी रही। यानी पूरे बाजार पर जिसका लगभग आधा हिस्सा रहा हो, भला उस कंपनी को मुनाफा कैसे नहीं होगा और उत्पादन क्यों गिरेगा? वह भी जब कंपनी के दूसरे उत्पाद भी बाजार में उपलब्ध हों जिनकी बाजार हिस्सेदारी 15 फीसदी रही है। यह कंपनी चॉकलेट और मैंगो बाइट के अलावा दूसरे उत्पाद भी बनाती है।
कंपनी बंद होने के पीछे रीयल स्टेट बाजार का भी दबाव काम कर सकता है, क्योंकि वहां की जमीन कीमतों में भारी उछाल बताया जा रहा है। बिलेपार्ले में 25 से 30 हजार रुपए स्क्वायर फीट जमीन बिक रही है। दूसरी बात, वहां जमीन अधिक उपलब्ध नहीं हो सकतीं, क्योंकि यह बेहद पुराना उपनगर है।
यूनिट बंद होने के पीछे यह बात भी हो सकती है कि कंपनी रीयल स्टेट में कदम रखना चाहती हो या उस जमीन का उपयोग दूसरे किसी काम में करना चाहती हो। प्रबंधन की तरफ से यह साफ नहीं हुआ कि कंपनी बंद होने के बाद उस जमीन का क्या होगा, क्योंकि यहां उसका मुख्यालय भी है।