
आश्चर्य है कि जिन स्कूलों में बच्चों को स्वस्थ रहने के लिए अच्छे और पौष्टिक भोजन के बारे में बताया जाता है, वहीं की कैंटीन में या स्कूल के आसपास ऐसे खाद्य पदार्थ खुलेआम बिकते पाए जाते हैं। सच यह भी है कि बच्चे सिर्फ स्कूल कैंटीन में उपलब्धता की वजह से इस तरह की खाने-पीने की चीजों को लेकर आकर्षित नहीं होते, बल्कि उनके घरों के आसपास और खरीदारी की जगहों पर आसानी से मिलने वाले डिब्बाबंद खाद्य पदार्थ उन्हें इस आदत से बचने नहीं देते।
कई लोग व्यस्तता या वक्त बचाने के नाम पर, या फिर दिखावे के लिए घर में बने भोजन के बजाय डिब्बाबंद खाद्य को वक्त की जरूरत जरुर बताते हैं। यह बेवजह नहीं है कि स्कूली बच्चे धीरे-धीरे अनाज या दूसरे खाद्यान्न की जगह पौष्टिकता से दूर इन ब्रांडेड कहे जाने वाले खाद्य पदार्थों की ओर सहजता से आकर्षित होते हैं और कई बार जरूरत न होने पर भी इनका सेवन करते हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि राज्य सरकार राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के निर्देश पर गंभीरता दिखाएंगी और भावी पीढ़ी की सेहत के सवाल की अब और अनदेखी नहीं होने देंगी। साथ ही मामा को अपनी चुप्पी तोडना होगी, मध्यप्रदेश एग्रोइण्डस्ट्रीज कारपोरेशन में जमे उनके अपने लोगों से पूछना होगा कि इस घपले के दौरान वे किस गफलत में थे। वैसे जिनके नामों पर पहले से दाग लगा हो उनके यहाँ गफलत में भी नही जाया जाता है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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