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स्वराज्य की रात
14 अगस्त 1947 की आधी रात, ठीक बारह बजे घंटे बज रहे थे, शंख-ध्वनी हो रही थी। संसद-सदन के केंद्रीय कक्ष में बाबू राजेन्द्र प्रसाद के सभापतित्व में संविधान सभा की एक विशेष बैठक ब्रिटिश शासन सत्ता ग्रहण करने का समारोह मनाने को रही थी। जनता में हर्ष उमंग की हिलोरें उठ रही थीं। सभा भवन दर्शकों से खचाखच भरा हुआ था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने सत्ता स्वीकारते हुए महत्वपूर्ण भाषण दिया था। रह-रहकर करतल- ध्वनि से हाल गूँज उठता था। पर संसद में बैठे हुए स्त्री-पुरूषों की आँखे महात्मा के दर्शन के लिए आकुल हो रही थीं, जिसके त्याग और तपस्या के बल से भारत स्वाधीन हो रहा था। वहाँ वह नहीं था। वह कोलकाता के एक मुस्लिम परिवार के घर में जिसके बाहर की गलियाँ और सडकें हिंदु मुसलमान भाइयों के रक्त से रंगी हुई थी। वह दोनों भाइयों को प्रेम का संदेश देने गया था। वह भारत की अखण्डता का पुजारी खंडित भारत के स्वराज्य समारोह का दृश्य नहीं देखना चाहता था, नहीं देख सकता था। जब अंग्रेज पत्रकारों ने उनसे संदेश माँगा तो उन्होंने सिर्फ इतना कहा मुझे कुछ नहीं कहना।
जिन क्षणों में सारा देश स्वतंत्रता का उत्सव मना रहा था, उन क्षणों में भारत का निर्माता, मनावता का अनन्य पुजारी, दीन हीनों का संरक्षक, शांति और प्रेम का देवता, नोआखाली के रक्त रंजित धूलिमय मार्गों और पगडंडियों पर हिंदुओं और मुसलमानों को पारस्परिक प्रेम और सहानुभूति का पावन संदेश देता हुआ घूम रहा था।
स्वराज्य का प्रभात
भारत और पाकिस्तान में स्वतंत्रता के कागजों पर दोनों राष्ट्रों के नेताओं के हस्ताक्षरों की स्याही सूख भी नहीं पाई थी कि दोनों राष्ट्रों के शहरों और ग्रामों की सडके तथा बस्तियाँ भाई भाई के रक्त से गीली होने लगी। ऐसी स्थिति देखकर महात्मा जी ने बडे दुख के साथ कहा मैं भाई-भाई के आपस में कट मरने का दृश्य देखने को जिंदा नहीं रहना चाहता। उन्होंने पाकिस्तान के पश्चिमी पंजाब में भी जाना चाहा था। पंरतु दिल्ली में ही नर-संहार, लूट, आदि भयानक कांड हो रहे थे। इसलिए वहाँ भी गांधीजी की आवश्यकता थी। वे वहीं बिडला भवन में ठहर गए और प्रतिदिन संध्या को प्रार्थना-सभा में अहिंसा, प्रेम, और एकता आदि पर प्रवचन करने लगे। जनता की हिंसक प्रवृत्ति को शोंत करने के लिए उन्होंने 13 जनवरी 1948 को उपवास भी प्रारंभ कर दिया और यह घोषित किया की जब तक हिंदू, मुसलमान, सिख, आदि जातियाँ लडना बंद नहीं करेंगी, मेरा उपवास जारी रहेगा। इसका परिणाम यह हुआ कि पाँच दिन के भीतर ही सब संप्रदायों के नेताओं ने उन्हें विश्वास दिलाया कि हम शांति से रहेंगे, प्रेम से रहेंगे । अतः उन्होंने उपवास त्याग दिया और नित्य की भाँति प्रार्थना-सभा में प्रवचन जारी रखा।
महाप्रयाण
1948 की जनवरी की 30 तारीख थी। शुक्रवार का दिन था। संध्या रात की ओर बढ रही थी। घडी ने पाँच बजा दिए थे। बिडला हाउस के प्रागण में जनता की भीड महात्मा गांधी जी के आगमन की प्रतीक्षा कर रही थी। उनका प्रार्थना सभा में आगमन का समय हो रहा था।
बापू को आज क्या हो गया, वे तो कभी लेट नहीं होते थे, - लोग आपस में फुसफुसा रहे थे। जरा अपनी घडी तो देखो, कहीं वही तो गडबड नहीं है। कुछ लोग सावधान होकर बोल रहे थे।
पँच बजकर बारह मिनिट हुए। लोगों ने देखा महात्मा जी लान में दों लडकियों आभा और मनु के कंधों पर हाथ रखे जल्दी-जल्दी चले आ रहे थे। कंधे पर खादी का शाल ओढे हुए थे। दिल्ली में काँपने वाली सर्दी जो बरस रही थी। वे बहुत अशक्त दिखाई दे रहे थे। वे प्रार्थनासभा के स्थान पर आए। जनता उनके निकट जल्दी-जल्दी बढने लगी। वे हाथ जोडे मंच पर मुश्किल से पाँच ही सीढी चढे होगे कि एक आदमी भीढ में से लपका और उसने चरण छूने की मुद्रा में झुककर छाती पर पिस्तौल तान दी और लगातार तीन फायर किए। महात्मा जी के मुख से केवल हे राम निकला और वे बेहोश होकर धरती पर गिर गए। जनता में खलखली मच गई, हत्यारा पकड लिया गया। जनता उस पर बुरी तरह टूट रही थी, पर पुलिस उसे खींचकर शीघ्र ही मैदान से बाहर ले गई। गांधीजी के शव के पास शोक मुद्रा में बैठे रहे रघुपति राघव राजा राम की धुन गूँजती रही।
आकशवाणी ने उनकी हत्या का सामाचार संसार भर में प्रसारित कर दिया। पं, जवाहरलाल नेहरू ने राष्ट्र के नाम रूँधी हुई आवाज में संदेश देते हुए कहा:-
हमारे जीवन की रोशनी बुझ गई। चारों तरफ अंधेरा छा गया है। फिर जरा सँभलकर बोले - मैंने अभी कहा कि रोशनी बुझ गई है, यह ठीक नहीं है। जिस रोशनी से देश जगमगा रहा था, वह मामूली रोेशनी नहीं थी। वह कभी नहीं, कभी नहीं बुझ सकती।
दिल्ली में यमुना नदी के किनारे महात्माजी का पार्थिव शरीर पंच तत्व में विलीन हो गया, पंरतु वे अपने यश रूपी शरीर से युग-युग तक जीवित रहेंगे और संसार को अपना ज्ञान प्रकाश से ज्योतित करते रहेंगे।
असतो मा सद्गमय
तमसो मा ज्योतिर्गमय
मृत्योर्माऽमृतं गमय