महंगी होती दाल और सरकारी नीति

राकेश दुबे@प्रतिदिन। बाजार में दालों के दाम फिर चढ़ने लगे हैं। कम से कम अगले दो-तीन महीने दामों में बढ़ोतरी से छुटकारे की उम्मीद नहीं है। देश में लगभग ढाई करोड़ टन दाल की खपत हर साल होती है, इसमें से लगभग दो करोड़ टन दालें भारत में पैदा होती हैं और लगभग पचास लाख टन आयात होती हैं। अगर बारिश ठीक न होने से या किसी और वजह से फसल खराब हो जाए, तो उत्पादन और मांग के बीच फासला ज्यादा बढ़ जाता है, जिससे दाम बढ़ने लगते हैं। दाम स्थिर रखने का एक उपाय तो यह है कि सरकार इतना भंडार बनाए कि दाम बढ़ने की हालत में उसे बाजार में लाकर दामों को काबू किया जा सके। जानकारों के मुताबिक, कुल उत्पादन का कम से कम 10 प्रतिशत, यानी लगभग 20 लाख टन दालों का सुरक्षित भंडार हो, तो उसके सहारे दामों पर नियंत्रण किया जा सकता है, लेकिन सरकारी भंडार पांच लाख टन के आसपास ही है और सरकार 10 लाख टन का सुरक्षित भंडार रखने की सोच रही है, जो कि पर्याप्त नहीं होगा।

आयात पर हमारी निर्भरता से एक समस्या यह है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में दामों पर हमारा नियंत्रण नहीं है, दूसरे भारत में जब दालों की कमी होती है और हमारा आयात बढ़ता है, तो इतनी ज्यादा मांग पैदा हो जाने से दाम आसमान छूने लगते हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजारों में कई दालों के दाम अपने घरेलू दामों के मुकाबले ऊंचे हो गए हैं। बुनियादी बात यह है कि भारत दालों का इतना बड़ा उपभोक्ता है कि वह सिर्फ आयात पर निर्भर नहीं रह सकता। हर साल दालों की कीमतों को लेकर उठने वाले बवाल से बचने का एकमात्र तरीका यही है कि देश दालों के मामले में आत्मनिर्भर बने, वरना हर साल यही स्थिति पैदा होगी। हमारे यहां खाद्य सुरक्षा के नाम पर गेहूं और चावल को ही सरकारी प्रोत्साहन मिलता है, जबकि जरूरत अन्य खाद्यान्नों को प्रोत्साहित करने की भी है। दाल की बुवाई का क्षेत्र बढ़ाने के अलावा उत्पादन बढ़ाने के तरीके भी अपनाए जाने चाहिए, क्योंकि हमारे देश में प्रति एकड़ उत्पादन दुनिया में सबसे कम है। पिछले कुछ वर्षों में सरकार का ध्यान दालों की खेती पर गया तो है, लेकिन जरूरत इस मामले में और ज्यादा गंभीरता व तेजी दिखाने की है।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।        
संपर्क  9425022703        
rakeshdubeyrsa@gmail.com
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