
कोई स्वस्थ सोच नहीं कहा जा सकता, मूलत: हमारी संवैधानिक व्यवस्था या हमारा लोकतंत्र ‘शक्तियों के पृथक्करण’ के सिद्धांत पर आधारित है। कार्यपालिका या विधायिका अगर न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में दखल दे, तो इसे कोई भी उचित नहीं ठहरा सकता, इसी तरह लोकतांत्रिक व्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में अदालती दखलंदाजी भी सही नहीं कही जा सकती।
जेटली ने किसी अन्य विषय के सहारे यह निशान साधा है वे जीएसटी से संबंधित कोई विवाद उठने की सूरत में उसके निपटारे के लिए एक स्वतंत्र व्यवस्था किसी जज के नेतृत्व में बनाने के पक्षधर हैं, तर्क के लिए अगर यह मांग मान ली जाए तो इसका मतलब होगा कि कर-निर्धारण की प्रक्रिया को कार्यपालिका के हाथ से निकल जाने देना, जो कि हमेशा उसका अधिकार क्षेत्र रहा है।
जीएसटी संबंधी विवाद के निपटारे के लिए कोई तंत्र बनाना जरूरी हो सकता है, पर उसके मुखिया का न्यायिक पृष्ठभूमि से होना जरूरी क्यों हो? देश में कुछ लोग न्यायिक सक्रियता को देश और समाज के लिए अच्छा मानते हैं तो कुछ इसे हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए एक खतरे के रूप में देखते हैं।
कुछ विषय हमेशा कार्यपालिका या विधायिका से भी वास्ता रखते हैं और न्यायपालिका से भी। अगर किसी के मौलिक अधिकार का हनन हो रहा हो या किसी कानून की व्याख्या की जरूरत हो, तो उस मामले का अदालत में जाना और उस पर सुनवाई होना स्वाभाविक तथा उचित है। लेकिन अगर नीति निर्माण व प्रशासनिक क्षेत्र में अदालत का दखल होता है तो वह एक गलत कारक सिद्ध होता है।
पार्किंग शुल्क तय करने, कचरे के निपटारे, यातायात नियंत्रण, रैगिंग रोकने जैसे मामलों में किसी अदालत को पड़ने की क्या जरूरत है? नदी जोड़ योजना एक नीति निर्धारण संबंधी विषय है, पर सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में इस योजना के क्रियान्वयन की बाबत भी सरकार को तलब कर डाला था।
न्यायिक सक्रियता का सबसे विवादास्पद उदाहरण तो शायद खुद कोलेजियम प्रणाली है, जिसकी परिकल्पना हमारे संविधान में नहीं थी, पर जिसकी ईजाद सर्वोच्च अदालत ने अपने एक फैसले के जरिए कर ली। संविधान में तो, प्रधान न्यायाधीश की सलाह से, जजों की नियुक्ति का अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया था, और यही व्यवस्था कई दशक तक चलती रही। कोलेजियम प्रणाली के तहत जज ही जजों की नियुक्ति करते हैं। इसके औचित्य पर शुरू से सवाल उठते रहे हैं।
ऐसे अनेक विषय हैं, जिन पर स्पष्टता नहीं है, सम्विधान मौन है या उसकी अनदेखी हो जाती है। संवैधानिक स्पष्टता के लिए एक राष्ट्रीय बहस और फिर संविधान सुधार के प्रयास जरूरी हैं, जिससे देश का मौजूदा स्वरूप बचा रहे।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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