
भारतीय नव वर्ष को महाराष्ट्र में गुडी पड़वा के रूप में मनाया जाता है, और मराठी संस्कृति में इस पर्व का विशेष महत्व है। इस दिन अदालत के फैसले की अवहेलना करते हुए कई स्थानीय पुरुष उस चबूतरे पर पहुंच गए, जहां शनि की प्रतिमा है, और उन्होंने प्रतिमा को दूध व तेल से नहलाया। गुडी पड़वा के दिन की यह स्थानीय रस्म रही होगी, लेकिन इससे विवाद होने की आशंका थी, इसलिए शायद मंदिर ट्रस्ट ने महिलाओं को भी चबूतरे पर चढ़ने की इजाजत दे दी। कारण जो भी हो, यह फैसला पहले ही हो जाना चाहिए था, क्योंकि यह वक्त की जरूरत है। ज्यादातर धार्मिक स्थलों पर लिंग, जाति, धर्म वगैरह को लेकर जिस तरह की पाबंदियां हैं, उन्हें परंपरा और शास्त्र-सम्मत बताया जाता है, लेकिन अगर इतिहास और परंपरा को ध्यान से परखा जाए, तो ऐसा नहीं है। यह देखा गया है कि अक्सर शुरू में धार्मिक स्थलों पर सबको जाने की आजादी होती है और रीति-रिवाज कर्मकांड भी कम होते हैं।धीरे-धीरे कर्मकांड ज्यादा विस्तृत होने लगते हैं और उसके साथ तरह-तरह के निषेध भी बढ़ते चले जाते हैं, जिनमें लिंग और जाति वगैरह के आधार पर भेदभाव भी शामिल है।
शनि शिंगणापुर मंदिर या मुंबई की हाजी अली दरगाह के प्रबंधकों को यह नहीं सोचना चाहिए कि इस मामले में उन्हें विशेष रूप से निशाना बनाया जा रहा है। किसी वक्त में दलितों के मंदिर-प्रवेश को लेकर आंदोलन चला था, क्योंकि वह वक्त की मांग थी। वैसे ही आज नहीं तो कल, धर्म के नाम पर स्त्री-पुरुष भेदभाव के खिलाफ आवाज तो आना ही थी ।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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