सूरत की फूट | सामान्य ज्ञान भाग 23

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सूरत की फूट एक नजर 
बंग-भंग की घटना का काँग्रेस की राजनीतिक पर गहरा प्रभाव पडा। काँग्रेस के उदारवादी नेता सरकार के विरूद्ध कठोर कदम उठाने के लिए तैयार नहीं थे। उदारवादी नेता इस आन्दोलन को केवल बंगाल तक ही सीमित रखने के पक्ष में थे जबकी उग्रवादी राष्ट्रवादी नेता ब्रिटिश सरकार का विरोध करने का मन बना चुके थे। दो तरह की विचाराधारा के मौजूद रहते ही काॅग्रेस के बनारस 1905 और कलकत्ता 1906 अधिवेशन सम्पन्न हो गये।

काॅग्रेस का अधिवेशन 1907 में नागपुर में होना था किन्तु बाद में इसका स्थान बदलकर सूरत कर दिया गया। इस समय तक काॅग्रेस में उग्र राष्ट्रवादी विचारों और आन्दोलनो में तीव्रता आ चुकी थी। उग्र राष्ट्रवादी सूरत अधिवेशन के लिये लाला लाजपतराय को अध्यक्ष बनाना चाहते थे। किन्तु उदारवादियो ने रास बिहारी बोस को अधिवेशन का अध्यक्ष बनाया। यही से उग्र राष्ट्रवादियो का विरोध शुरु हो गया। विरोध के कारण अधिवेशन के पहले दिन सभा स्थगित रही । दूसरे दिन बाल गंगाधर तिलक ने सभी के सामने यह बात रखी कि यदि स्वराज स्वदेशी बहिष्कार और राष्ट्रीय शिक्षा के प्रस्तावो को पुष्ट किया जाये तो अधिवेशन के अध्यक्ष के पद पर होने वाले विवाद को खत्म किया जा सकता है। उदारवादियो ने प्रस्तावो को मानने से इंकार कर दिया। जिससे अधिवेशन में अव्यवस्था व अशान्ति फैल गई। उदारवादी और उग्र राष्ट्रवादी नेताओ के बीच तनाव बढ गया कि उदारवादियो ने उग्र राष्ट्रवादियो को काॅग्रेस से निष्कासित कर दिया।

उग्र राष्ट्रवादी आन्दोलन के मार्ग में उदारवादियो को सबसे बडी बांधा मानते थे और काॅग्रेस का नेतृत्व अपने हाथो में लेना चाहते थे। दूसरी ओर उदारवादी भी उग्र राष्ट्रवादियो से काॅग्रेस को बचाना चाहते थे। उदारवादी नही चाहते थे। कि उग्र राष्ट्रवादियो के कारण ब्रिटिश सरकार काॅग्रेस से नाराज होकर उसका दमन करे। इसीलिये भी वे उग्र राष्ट्रवादियो से पीछा छुडाना चाहते थे।

सूरत अधिवेशन की घटना ने काॅग्रेस के उदारवादी और उग्र राष्ट्रवादी नेताओ को सोचने पर विवश किया किन्तु दोनो पक्षो के कुछ नेता मतभेदो को समाप्त करने पर एकमत नही हुएॅ जिसके कारण अतः काॅग्रेस में विभाजन हो गया। जिसे सूरत की फूट कहा जाता है। 

काॅग्रेस का यह विभाजन भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन की दृष्टि से विनाशकारी सिद्ध हुआ। ब्रिटिश सरकार ने इसे अपनी जीत के रुप में लिया। वस्तुतः सूरत अधिवेशन से स्वाधीनता का नया अध्याय आरंभ होता है। एक नयी भावना जागृत हुई थी जो न केवल शिक्षित माध्यम वर्ग के कुछ चुने हुये लोगो को वरन् जनता के विशाल वर्ग के मस्तिष्क और हदय को भी उद्धेलित कर रही थी। यह आन्दोलन जन आन्दोलन का रुप धारण करने जा रहा था।

राजा बख्तावर सिंह 
अंग्रेजो के खिलाफ विद्रोह की चिन्गारी प्रज्वलित होने में इमझेरा धार से लगभग 30 कि0 मी0 दूर राजा बख्तावर सिंह मालवा के पहले शासक थे, जिसने कम्पनी के शासन का अंत करने का बीडा उठाया था, अंग्रेजो की सेना को राजा ने कडी टक्कर दी, किन्तु अपने ही सहयोगियो द्वारा विश्वासघात के कारण बख्तावर सिंह गिरफ्तार किये। अंग्रेजो ने उन्हे इन्दौर में फाँसी पर चढा दिया।

सआदत खाँ और भागीरथ सिलावट 
1857 के स्वतंत्रता संग्राम में इन्दौर के सआदत खाँ और भागीरथ सिलावट ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई इन्होने अंग्रेज सैनिक अधिकारियो का डटकर मुकाबला किया। अंग्रेजो द्वारा पकड लिये। जाने पर इन्हे फाँसी दे दी गई। इनका बलिदान उल्लेखनीय है।

राजा शंकर सिंह और रघुनाथ शाह
1857 की क्रान्ति में जबलपुर की विशिष्ट भूमिका रही। रानी दुर्गावती के वंशज एवं गोंड राजघराने के वृद्ध राजा शंकरशाह व उनके युवा पुत्र रघुनाथ शाह का बलिदान अविस्मरणीय था। इन्हे बहादुर सैनिको तथा ठाकुरो ने मिलकर अंग्रेजी सेना के बिरुद्ध बगावत करने की योजना का नेता बनाया। दुभाग्यवश क्रियान्वयन के पूर्व ही योजना का भंण्डाफोड हो गया। फलस्वरुप अंग्रेजो द्वारा उन दोनो को गिरफ्तार कर रेसीडेन्सी वर्तमान कमिश्नर कार्यालय ले जाया गया। मुकदमा चलाने का नाटक करके भारी भीड के सामने 18 सितंबर 1857 को पिता पुत्र दोनो को तोप के मुॅह पर बांधकर उडा दिया गया।

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