
उस हमले के बाद नवाज शरीफ ने कहा था कि अच्छे और बुरे तालिबान में फर्क नहीं किया जाएगा। इस कथनी को करनी में तब्दील होते देखने के लिए दुनिया उतावली है पर अब तक उसे निराशा ही हाथ लगी है। ईस्टर पर लाहौर में हुए आत्मघाती हमले के दिन हजारों लोग पाकिस्तान की संसद के सामने गवर्नर सलमान तासीर के हत्यारे को ‘शहीद’ का दर्जा दिलाने के लिए बैठे हुए थे। एक निहत्थे शख्स पर अट्ठाईस गोलियां दागने वाले दुर्दांत हत्यारे के प्रति ऐसी हमदर्दी भी बताती है कि पाकिस्तान में आतंकवाद की जड़ें कितनी गहरी हैं। इन्हें उखाड़े बिना आतंकवाद पर भला कैसे काबू पाया जा सकता है!
मानवता, शांति और क्षमाशीलता का संदेश देने वाले ईसा मसीह के पुनर्जीवन-पर्व ईस्टर की शाम को लाहौर में एक आत्मघाती हमलावर ने सत्तर मासूमों के खून से रंग कर इंसानियत को फिर शर्मसार कर दिया है। यह पाकिस्तान में आम नागरिकों के सुरक्षा इंतजामात की कलई खोलने के साथ ही आतंकवाद से निपटने में सरकारी एजेंसियों की चौतरफा नाकामी को भी उजागर करता है। तालिबान के एक धड़े जमात-उल-अहरार के मुताबिक यह ईशनिंदा कानून का विरोध करने वाले पंजाब प्रांत के पूर्व गवर्नर सलमान तसीर के हत्यारे को दी गई फांसी का बदला था और इसमें ‘जानबूझ कर ईसाई समुदाय को निशाना बनाया गया।’ कैसी विडंबना है कि मजहब के आधार पर बने पाकिस्तान में सबसे अधिक खूंरेजी मजहब के नाम पर ही हो रही है। शिया, अहमदिया या कादियानी जैसे मुसलिम मतावलंबी हों या अल्पसंख्यक हिंदू, ईसाई अथवा अन्य धार्मिक समुदाय, आतंकवादियों के लिए वे आसान शिकार रहे हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि खुलेआम भड़काऊ भाषण देकर मजहबी उन्माद पैदा करने वालों, कश्मीर की कथित आजादी के लिए आतंकवादियों के प्रशिक्षण शिविर चलाने वालों और ईशनिंदा कानून का हिंसक विरोध करने वालों को पाकिस्तान में नायकों जैसा दर्जा हासिल है।
इस सबके बावजूद समाज और देश के ऐसे दुश्मनों पर सरकारी मेहरबानियां लगातार बरसती रहती हैं और इसी के साथ चलता रहता है चरमपंथ या दहशतगर्दी की छद्म निंदा और उसके खिलाफ काठ की तलवारें भांजने का खेल। इस खेल की पोल अल-कायदा सरगना उसामा बिन लादेन के पाकिस्तान में पनाह लेने का सच सामने आने से तो खुली ही थी, मुंबई हमले के सरगना हाफिज मुहम्मद सईद और पठानकोट हमले की साजिश रचने वाले मौलाना मसूद अजहर के खुलेआम घूमने से अनेक बार खुल चुकी है, लेकिन पाकिस्तानी हुक्मरान उससे आंखें फेरे रहते हैं। अब उन्हें नींद से जगाने के लिए संयुक्त राष्ट्र को कुछ करना चाहिए |
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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