राकेश दुबे@प्रतिदिन। जब भी आरक्षण को लेकर आंदोलन होता है, तो सत्तारूढ़ पार्टी के लिए मुश्किल खड़ी हो जाती है और विरोधी पार्टियां उसमें अपना राजनीतिक लाभ उठाती हैं। जब हरियाणा में कांग्रेस की सरकार थी, तब जाटों का आरक्षण आंदोलन उसके लिए मुसीबत बन गया था और अब भाजपा के मुख्यमंत्री इसकी आंच झेल रहे हैं। अगर जाट आरक्षण आसानी से संभव होता, तो अब तक यह मामला सुलझ गया होता। केंद्र में पिछली संप्रग सरकार ने केंद्रीय नौकरियों में जाटों को पिछडे़ वर्ग में आरक्षण दे भी दिया था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उस आदेश को रद्द कर दिया। हरियाणा में जिस कोटे में, यानी विशेष आर्थिक रूप से पिछड़े व्यक्तियों की श्रेणी में जाटों को तीन अन्य जातियों के साथ १० प्रतिशत का आरक्षण दिया गया है, उसे भी हाईकोर्ट अवैध करार दे चुका है और मामला शीर्ष अदालत में है।
हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने इस श्रेणी में २० प्रतिशत आरक्षण का प्रस्ताव रखा है, जिसे जाटों ने नामंजूर कर दिया है। यह समझना कठिन है कि क्या जाट सचमुच यह सोचते हैं कि उन्हें आरक्षण देने के लिए संविधान में संशोधन जैसा कदम उठाने के लिए वे सरकार को मजबूर कर सकते हैं? क्या यह आंदोलन खीज और गुस्से से निकला हुआ दिशाहीन आंदोलन है? जाट आरक्षण की घोषणा सबसे पहले वसुंधरा राजे ने राजस्थान विधानसभा चुनावों के दौरान की थी।इसका उन्हें फायदा भी मिला और जाटों ने उन्हें भरपूर समर्थन दिया, लेकिन फिर राजस्थान में गूजरों का अनुसूचित जनजाति श्रेणी में आरक्षण दिए जाने की मांग को लेकर आंदोलन शुरू हो गया। गुजरात में पटेलों का आरक्षण आंदोलन भी सरकार के गले की फांस बन चुका है। अब स्थिति यह है कि किसी जाति विशेष को आरक्षण दिलाने का वादा किसी को वोट तो नहीं दिलवा सकता, लेकिन आरक्षण की मांग कर रही जाति किसी पार्टी को नुकसान जरूर पहुंचा सकती है।आरक्षण पर अब बहस होने लगी है, आर्थिक आधार पर सबको आरक्षण मिले को आवाज़ तेज होने लगी है |
अपेक्षाकृत ताकतवर और संपन्न जातियों में आरक्षण की मांग विचित्र मालूम देती है, लेकिन इसकी ठोस वजहें हैं। वर्चस्व बढ़ाने की इच्छा के अतिरिक्त एक बड़ी वजह यह है कि जाटों या पटेलों में सभी समृद्ध नहीं हैं। उत्तर भारत की ताकतवर किसान जातियां भी शिक्षा व औद्योगिक संस्कृति के मामले में पिछड़ी हुई हैं। जो नई ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था तेजी से विकसित हो रही है, उसमें वे आखिरी पायदानों पर हैं। ऐसे में, उन्हें लगता है कि आरक्षण से उनके बच्चे आईआईटी या प्रतिष्ठित संस्थानों में भर्ती हो पाएंगे व खेती और जमीन पर निर्भरता से मुक्त हो सकेंगे। इसका निदान हर किसी को आरक्षण का वादा करना नहीं, बल्कि ज्यादा अवसर पैदा करना है और तंत्र को ज्यादा न्यायसंगत बनाना है, ताकि आरक्षण की मूल भावना बनी रहे और वह राजनीतिक खेल का मोहरा न बने।
- श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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