राकेश दुबे@प्रतिदिन। बहुत सारे परस्पर वरोधी तर्कों के बीच महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून(मनरेगा ) को 10 साल पूरे हो गए हैं। सरकार का दावा है कि इस शासन के चलते इस योजना को लागू करने में बदलाव आया है। इस दावे की सच्चाई पर सवाल उठना लाजिमी है क्योंकि कई जगहों पर इसे लागू करने में कमियां रही है। तेलंगाना के महबूबनगर जिले के घटू की खबरे और जो आंकड़े सामने आये हैं, वे चौंकाने वाले हैं।
तेलंगाना सरकार ने सात जिलों के 231 मंडलों को सूखा प्रभावित घोषित किया। इसमें महबूबनगर के 64 मंडल भी शामिल हैं। सरकार ने मनरेगा के तहत एक साल में रोजगार के दिनों की संख्या को 100 से बढ़ाकर 150 दिन कर दिया। बावजूद इसके केवल 4 प्रतिशत परिवार ही 100 दिन का रोजगार पा सके। जिले की 273 पंचायतों में तो काम भी शुरु नहीं हो सका। इस वित्तीय वर्ष में 60 से भी कम दिन बचे हैं। इससे साफ है कि 150 दिन तो दूर की कौड़ी है ज्यादातर परिवार 100 दिन का रोजगार भी नहीं पा सकेंगे। इस अनियमितता से क्या साबित होता है। कम मजदूरों के आने के दो कारण हैं एक- ग्रामीण स्तर पर स्टाफ की कमी और दूसरा पहले से मौजूद स्टाफ की उदासीनता। फील्ड असिस्टेंट या सीनियर मेट ग्रामीणों को मंडल ऑफिस से जोड़ने की मुख्य कड़ी होता है।यह तो बानगी है | पूरे देश की तस्वीर कैसी होगी ?
वस्तुत:मनरेगा की सफलता विश्वसनीय फील्ड ऑफिसर पर निर्भर करती है। फील्ड ऑफिसर की कमी से रोजगार मांगने वाले लोगों का कम पंजीकरण होता है और फलस्वरूप कम रोजगार होगा। इसके अतिरिक्त नए जॉब कार्ड भी जारी नहीं किए जिससे बेराेजगारी और बढ़ गई। कई मामलों में काम की मांग नहीं मानी गई, जमीन पर कोर्इ काम नहीं हुआ लेकिन सरकारी वेबसाइटों पर सफलता की कहानियां लिख दी गई। एक अौर चिंता की बात है कि पेमेंट में बड़े स्तर पर देरी होती है। इससे लोगों का मोहभंग होता है। अब सरकार क्या करे। पहला कदम उठाते हुए खाली पदों को जल्द से जल्द भरें। दूसरा काम की सूची लोगों को बताई जाए। ऑफिस में समय पर डिमांड फॉर्म आए और मजदूरों को रसीदें मिले। चौथा फील्ड ऑफिसर्स की जिम्मेदारी तय करने के लिए मस्टर से पंजीकरण हो। पांचवां, पेमेंट बैंकिंग के जरिए हो। साथ ही हर महीने रिव्यू हो। अंत में एक तटस्थ संगठन को यह तय करना चाहिए कि कानून के वादों को लागू करने में देरी होने पर सरकार को जुर्माना भरना पड़े।