राकेश दुबे@प्रतिदिन। तीन सरकारी बैंकों ने इस वित्तीय वर्ष की तीसरी तिमाही में घाटा दिखाया है। बाकी बैंकों की कमाई में भी भारी कमी आई है और पंजाब नेशनल बैंक का मुनाफा तो ९३ प्रतिशत कम हुआ है।२०१५ -१६ की आखिरी तिमाही में ज्यादा बुरे आंकड़े आएंगे, क्योंकि तब तक कई बैंकों में कर्ज की स्थिति और ज्यादा साफ हो जाएगी। पिछले तीन साल में बैंकों ने १ १४ ००० करोड़ रुपये के कर्ज 'राइट ऑफ' कर दिए हैं, यानी इनकी वसूली की संभावना बहुत कम है। माना जा रहा है कि मार्च २०१६ में बैंकों के डूबे हुए कर्ज (एनपीए) पिछले वित्त वर्ष के ३ २४ ००० करोड़ रुपये से बढ़कर ४ २६ ००० करोड़ रुपये हो जाएंगे। अगर इनमें उन खातों की राशि भी जोड़ लें, जो पुनर्नियोजित किए गए हैं, यानी जिनको कर्ज न चुका पाने के कारण आसान शर्तों पर और मोहलत दी गई है, तो यह राशि लगभग ६ लाख करोड़ है।इन सभी राशियों को जोड़कर लगभग नौ लाख करोड़ रुपये की रकम बनती है, जो बैंकों ने कर्ज के रूप में दी है और जिसके वापस आने की संभावना बहुत कम है। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के गवर्नर रघुराम राजन काफी वक्त से इस खतरे की बात करते रहे हैं। उन्होंने बैंकों से अपने कर्ज का ज्यादा यथार्थवादी आकलन करने के लिए भी कहा है, इसी का नतीजा है कि बैंकों की खराब हालत की तस्वीर सामने आने लगी है। यह दिख रहा है कि पिछले वर्षों में डूबे हुए कर्ज की रकम में भारी इजाफा हुआ है। २००७ में यह रकम जहां १०००० करोड़ के आसपास थी, इस साल इसके छह लाख करोड़ रुपये से ऊपर होने की आशंका है। यानी लगभग ६००० प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।
कर्ज लेने वालों में बहुत से लोग या प्रतिष्ठान ऐसे होंगे, जो कर्ज चुकाना नहीं चाह रहे होंगे, लेकिन ज्यादातर ऐसे हैं, जिन्होंने अपने कारोबार को बढ़ाने की महत्वाकांक्षा में भारी कर्ज लिया और जब अर्थव्यवस्था की गति धीमी पड़ी, तो वे कर्ज चुकाने की स्थिति में नहीं रहे। सन २००७ में अर्थव्यवस्था तेज रफ्तार से दौड़ रही थी और कर्ज भी आसानी से मिल रहे थे, लेकिन सन २०१० आते-आते स्थिति बदल गई। कर्ज न चुका पाने वालों में बुनियादी ढांचे के निर्माण में लगी कंपनियां, बिजली कंपनियां, रीयल एस्टेट की कंपनियां हैं। कुछ उद्योगपतियों के गलत आकलन और फैसले, तो कुछ सरकारी अड़ंगे, और कुछ मांग में कमी, ये सभी इसके लिए जिम्मेदार हैं। चीन की अर्थव्यवस्था में बदलाव से इस्पात, सीमेंट और कच्चे माल के उद्योगों को बड़ा झटका लगा। बैंकों ने भी कर्ज देने में काफी गड़बडि़यां कीं। इसमें सरकारी दबाव, निजी संबंध और भ्रष्टाचार की बड़ी भूमिका है। शायद इसीलिए देश के निजी बैंक वैसी बुरी हालत में नहीं हैं, जितने सरकारी बैंक हैं।
- श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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