
इस माहौल में पाकिस्तान की भी इच्छा रही होगी कि बैठक मुल्तवी कर दी जाए। समस्या तो भारत सरकार के सामने थी कि जिस वक्त पठानकोट हमले को लेकर पूरे देश में गम और नाराजगी का आलम हो, पाकिस्तान से वार्ता के नए दौर की शुरुआत करना सियासी तौर पर महंगा कदम साबित हो सकता था । इसलिए उसकी हिचकिचाहट साफ दिख रही थी। सवाल यह है कि जब पठानकोट हमले को अंजाम देने वाले जैश-ए-मोहम्मद के खिलाफ पाकिस्तान की कार्रवाई पर सरकार ने संतोष जताया, तो बैठक क्यों टाल दी गई? इसकी वजह यही हो सकती है कि पाकिस्तान सरकार की कार्रवाई अभी शुरुआती स्तर पर है।
जैश-ए-मोहम्मद के ठिकानों पर पाकिस्तान में छापेमारी हुई, और उसके कुछ लोग पकड़े भी गए हैं लेकिन जैश के सरगना मसूद अजहर की हिरासत में लिए जाने की खबरों की पुष्टि अब तक पाकिस्तान सरकार ने अभी तक नहीं की है। पठानकोट हमले की जांच के लिए पाकिस्तान ने जिस विशेष जांच दल का गठन किया है उसे यहां आने की इजाजत भारत ने दे दी है। सवाल है कि क्या पाकिस्तान की ओर से उठाए गए ये कदम तार्किक परिणति तक पहुंचेंगे?
पहले के अनुभव उम्मीद नहीं जगाते। गेंद पाकिस्तान के पाले में है, और नवाज शरीफ को यह मौका मिला है कि आतंकवाद के खिलाफ वे अपनी गंभीरता साबित करें। उन पर अंतरराष्ट्रीय दबाव पड़ने के भी संकेत हैं। मसलन, पिछले दिनों अमेरिकी कांग्रेस ने पाकिस्तान को दी जाने वाली सैन्य सहायता पर रोक लगा दी है । फिर, पाकिस्तान के खासकर शहरी मध्यवर्ग में यह भावना जोर पकड़ रही है कि लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद और तहरीक-ए-तालिबान जैसे संगठनों के प्रति बरती गई ढिलाई खुद पाकिस्तान की एकता, स्थायित्व और शांति के लिए खतरा पैदा कर रही है। पाकिस्तानी जनता भी सोचने लगी है कि इनसे कड़ाई से निपटने का वक्त आ गया है।
- श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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