राकेश दुबे@प्रतिदिन। उत्तर प्रदेश के राजनितिक समीकरण बदल रहे है, तीसरी ताकत दिख रही है,जो कुछ करने पर आमादा है | बसपा की जो नेत्री चुनाव जीतने के लिए अब तक प्रतीकों की राजनीति करती रही हैं, इस बार बेहतर प्रशासन की राजनीति उनका प्रमुख हथियार है। जातिगत समीकरणों से इतर पूर्व मुख्यमंत्री का बेहतर प्रशासनिक रिकॉर्ड और कानून-व्यवस्था पर पकड़ ने उन्हें अपने विरोधियों से ऊपर बनाए रखा है। सपा के हाथों सत्ता गंवाने के बाद के इन चार वर्षों में उत्तर प्रदेश में व्याप्त अव्यवस्था और अराजकता की वजह से उनकी साख इतनी बढ़ी है कि सत्ता में होते हुए अपनी और अन्य दलित नेताओं की मूर्तियां लगाने के उनके उन्माद एवं अहंकार भरे फैसले को भी लोग जरूरी कानून-व्यवस्था की एवज में भुलाने के लिए तैयार हैं। जाति, धर्म और समुदाय से इतर कानून-व्यवस्था की स्थिति आगामी विधानसभा चुनाव में बसपा का प्रमुख मुद्दा बन सकती है।
बसपा का प्रमुख वोट बैंक रहीं जाटव, दलित समूह और अन्य पिछड़ी जातियां, जिनका मायावती से मोहभंग हो गया था, यादवों के वर्चस्व से त्रस्त होकर एक बार फिर उनके पक्ष में एकजुट हो रही हैं। ब्राह्मणों की स्थिति भले उतनी खराब न हो, लेकिन ग्रामीण इलाकों में बंदूक की नोक पर गुंडाराज करने वालों से वे भी आजिज आ चुके हैं। मुस्लिमों को सपा से संरक्षण की उम्मीद थी, पर वे भी प्रदेश में अब नया मुखिया चाहते हैं। संदेश साफ है कि लखनऊ में बैठे सत्ताधारी भगवा बिग्रेड से अल्पसंख्यकों की सुरक्षा करने में विफल रहे हैं।
कानून-व्यवस्था ही एकमात्र मुद्दा नहीं है, जिसके बूते मायावती सत्ता में वापसी का सपना देख रही हैं। राज्य में बढ़ते कृषि संकट और खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ना किसानों को उनकी समस्याओं से निजात दिलाने में उनकी भूमिका को उम्मीद भरी नजरों से देखा जा रहा है। प्रदेश की सपा और केंद्र की भाजपा सरकार से त्रस्त किसान बसपा के शासन को याद करते हैं, जब न केवल चीनी मिलों से समय पर गन्ने का भुगतान हो जाता था, बल्कि कीमत भी वाजिब मिलती थी। भारतीय किसान यूनियन और भारतीय किसान आंदोलन के प्रतिनिधि भी इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए बसपा के पक्ष में खड़े हैं। ऐसा पहली बार देखने को मिल सकता है, जब आपस में भिड़ने वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट किसान और जाटव समुदाय के लोग एक साथ मतदान करेंगे।
- श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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