फेसबुक के फ्री बेसिक्स के पीछे क्या अर्थशास्त्र छिपा है?

जरा एक क्षण के लिए कल्पना कीजिए कि 7,500 करोड़ रुपये वाला भारत का सबसे बड़ा प्रसारक स्टार समूह पूरे देश की आबादी तक अपनी पहुंच बनाना चाहता है, जहां अभी यह कुल 65 करोड़ की आबादी तक ही पहुंच पा रहा है। इस मकसद को हासिल करने के लिए वह अपने 'स्टार प्लस' और संभवत: एक अन्य लोकप्रिय चैनल 'लाइफ ओके' सहित कुछ अन्य प्रसारकों के चैनलों संग मुफ्त केबल या डीटीएच कनेक्शन की पेशकश करे। अगर आप स्टार टीवी की पेशकश से इतर कुछ और भी देखना चाहें तो उसके लिए आपको कनेक्शन और चैनल दोनों के लिए मोटा भुगतान करना होगा। लोग जो फ्री मिल रहा है उसी तक सीमित रहेंगे, इस तरह केवल पर  स्टार टीवी का एकाधिकार हो जायेगा और इंटरनेट पर फेसबुक का. 

असल में 12.5 अरब डॉलर की कंपनी फेसबुक भी फ्री बेसिक्स के साथ यही करना चाहती है। वर्ष 2014 में यह कार्यक्रम कई देशों में शुरू हुआ था, जिसमें मोबाइल पर फेसबुक के साथ सीमित इंटरनेट सेवाएं पेश की जा रही हैं। उससे परे किसी भी चीज के लिए डेटा खर्च करना पड़ता है। भारत में जहां फ्री बेसिक्स 10 महीने पहले शुरू हुआ था, वहां नेट निरपेक्षता को लेकर स्वर अधिक मुखर हो रहे हैं। हालांकि यह मुद्दा नेट निरपेक्षता से परे जाता है। इससे यह सवाल खड़ा होता है कि क्या इंटरनेट जरूरी भी है या नहीं। क्या इसकी पहुंच सुगम बनाने में सब्सिडी या प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए और ऐसा करने में क्या अर्थशास्त्र छिपा है? 

मामला केवल इतना भर नहीं है कि इससे एक बड़ी अमेरिकी कंपनी के पास गरीब लोगों की जानकारियां भी पहुंच जाएंगी, जैसा कि इसके विरोधी इसकी तस्वीर पेश कर रहे हैं। इसमें उन लोगों के हित भी जुड़े हैं, जो काफी समय से इंटरनेट का उपयोग कर रहे हैं और उन लोगों के लिए आवाज उठा रहे हैं, जिन्होंने कभी इसका इस्तेमाल ही नहीं किया। तकरीबन 31.9 करोड़ उपभोक्ताओं के साथ दुनिया के सबसे बड़े इंटरनेट बाजारों में से एक भारत में चल रही बहस में ऐसे तमाम सवाल उठ रहे हैं। टेलीविजन के साथ उनकी तुलना करके देखना इस मामले में मददगार होगा। 

निरपेक्षता टेलीविजन कारोबार पर जबरन थोपी गई है। सभी चैनल सभी वितरकों (केबल या डीटीएच) को पेश करने पड़ते हैं। डीटीएच कंपनियों को ग्राहकों को तकनीकी रूप से ऐसे सेट-टॉप बॉक्स देने होते हैं, जिससे दर्शक जब चाहें तब अपने सेवा प्रदाता को बदल सकें। वहीं नियामक भारतीय दूरसंचार नियामक प्राधिकरण (ट्राई) ने कीमतों पर सीमा तय कर रखी है, जो टेलीविजन कारोबार में बड़ी पेचीदा गंदगी में तब्दील में हो गई है। इस पर कैरिज फीस ने कार्यक्रमों में नवीनता पर कुठाराघात किया है। जहां तक निरपेक्षता पर पूरे ध्यान की बात है तो उपभोक्ता विकल्पों-चाहे वो कार्यक्रमों का मसला हो या कीमत का, वह दुनिया के दूसरे सबसे बड़े टेलीविजन बाजार में सीमित ही बनी हुई है क्योंकि इससे कई और पहलू भी जुड़े हुए हैं। यही इस आलेख का पहला बिंदु है। 

एक प्रभुत्वशाली प्रसारक के तौर पर अगर स्टार मुफ्त कनेक्शन की पेशकश करता है, जो इस अनुमान पर आधारित हो कि दर्शक केवल उसके चैनल देखेंगे तो इससे अन्य लोगों के लिए बाजार में प्रवेश की राह में अवरोध पैदा होगा। इस प्रकार यह पक्षपातपूर्ण है। वहीं ट्राई का दावा है कि पारदर्शिता और निष्पक्षता दो नियामकीय सैद्घांतिक कुंजियां हैं। फ्री बेसिक्स पर चर्चा के दौर में पिछले साल दिसंबर में डेटा सेवाओं की विभिन्न कीमतों को लेकर जारी किए गए परामर्श पत्र में इसे स्पष्ट किया गया। हैरानी की बात है कि कैरिज शुल्क, जो टेलीविजन कारोबार में नए खिलाडिय़ों के खिलाफ माहौल बनाती है, बदस्तूर कायम है। बैंडविड्थ की कमी से ही कैरिज शुल्क वसूलने की जमीन तैयार होती है, हालांकि इस कमी को पूरा करने के दूसरे तरीके भी मौजूद हैं, मसलन डिजिटलीकरण के जरिये टीवी सिग्नलों को भेजने वाला मोटा पाइप बिछाया जा सकता है, तमाम प्रतिस्पर्धी तकनीकों को आजमाया जा सकता है और निवेश करने पर प्रोत्साहन दिए जा सकते हैं। 

इसके बाद हम दूसरे बिंदु की ओर आते हैं। विभिन्न कीमतों पर जोर देने के बजाय हम इस बड़े सवाल पर ध्यान केंद्रित क्यों नहीं करते कि लोगों तक इंटरनेट की पहुंच अधिक से अधिक कैसे बढ़ाई जाए? क्या इसे बुनियादी ढांचे पर होने वाले भारी खर्च के मामले में प्रोत्साहन देकर किया जा सकता है या फिर विभिन्न तरीकों को बढ़ावा देकर, जिनसे होने वाली प्रतिस्पर्धा से डेटा कीमतें घटाने में मदद मिल सके? कुछ और विचार भी हैं। सरकार के लिए आधार के जरिये सब्सिडी प्लेटफॉर्म तैयार करने वाले नंदन नीलेकणी और विरल शाह का सुझाव है कि सरकार को प्रत्येक उपभोक्ता को 120 मेगा बाइट (एमबी) डेटा मुफ्त देना चाहिए। इसके वित्तपोषण के लिए उन्होंने सुझाव दिया कि दूरसंचार विभाग के  40,000 करोड़ रुपये के 'सार्वभौमिक सेवा दायित्व कोष' से धन लिया जाए। (हैरानी की बात है कि) यह कोष दूरसंचार सेवा प्रदाताओं के योगदान से बना है। 

अब आखिरी पहलू की बात। वर्ष 2014 में फ्री बेसिक्स की शुरुआत के बाद से डेटा उपयोग में अफ्रीका में सबसे तेज वृद्घि दर्ज की गई है। इस तरह देखा जाए तो यह कारगर है। मगर उसके बाद हुए तमाम शोधों के अनुसार ऐसी डेटा सेवाओं के दो तिहाई उपभोक्ता यही समझते हैं कि फेसबुक ही इंटरनेट है। अगर स्टार टीवी द्वारा रचित एक समूह के भारत में करोड़ों लोगों के लिए टेलीविजन का पर्याय बनना गलत लगता है तो यही बात फेसबुक या किसी अन्य ऐप पर भी लागू होती है, कि पहली बार इंटरनेट इस्तेमाल करने वाले तमाम भारतीयों के लिए वही इंटरनेट का पर्याय बन जाएं। ब्रिटेन में ओपन यूनिवर्सिटी में पब्लिक अंडरस्टैंडिंग ऑफ टेक्नोलजी के प्रोफेसर जॉन नॉटन ने पिछले वर्ष 'द गार्डियन' में प्रकाशित अपने आलेख में इस विषय पर कुछ ऐसे रोशनी डाली, 'दुनिया में हर जगह सार्वजनिक नीतियों का मकसद अधिक से अधिक लोगों तक इंटरनेट की पहुंच बढ़ाना होना चाहिए, समग्र इंटरनेट की पहुंच न कि कुछ कंपनियों द्वारा संचालित इंटरनेट की।' 
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