ये फैसले क्यों जरूरी हैं ?

राकेश दुबे@प्रतिदिन। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने फैसला किया है कि पुलिस में प्रतिनिधित्व को लेकर आंकड़ों को अब सार्वजनिक नहीं  किया जायेगा। अब तक ये आंकड़े सालाना 'भारत में अपराध' रिपोर्ट में प्रकाशित किए जाते थे, जिसे राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो प्रकाशित करता आ रहा  है। इस रिपोर्ट में धर्म आधारित आंकड़े सिर्फ एक वर्ग  के बारे में होते थे, अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के बारे में ऐसे आंकडे़ प्रकाशित नहीं किए जाते थे। आंकड़े जुटाने न जुटाने और प्रकाशित करने का फैसला किस वजह से किया गया, यह तो पता नहीं, लेकिन सामान्य समझ यही बताती है कि किसी भी किस्म की जानकारी, खास तौर पर संवेदनशील मुद्दों के संदर्भ में, मूल्यवान होती है।

भारत में पुलिस, कानून और व्यवस्था और सांप्रदायिकता की समस्या बहुत जटिल व संवेदनशील है, और जितनी जानकारी व आंकड़े हमारे पास होंगे, उतनी ही इसे सुलझाने में मदद मिल सकेगी। भारत में आबादी के अनुपात में पुलिस में वर्ग विशेष  का प्रतिनिधित्व उनकी आबादी के अनुपात में  बहुत कम है।  उदाहरण भारत में लगभग 15 प्रतिशत आबादी मुसलमान है और पुलिस में अखिल भारतीय स्तर पर उनका प्रतिनिधित्व लगभग छह प्रतिशत है। अगर जम्मू-कश्मीर को निकाल दिया जाए, जहां पुलिस में 60 प्रतिशत मुस्लिम हैं, तो यह घटकर चार प्रतिशत हो जाता है। 

देश में सिर्फ दो राज्यों- गुजरात और ओडिशा में उनका प्रतिनिधित्व आबादी के प्रतिशत से ज्यादा है। गुजरात में लगभग 10 प्रतिशत पुलिसकर्मी मुसलमान हैं। केरल और असम में पुलिसकर्मियों का प्रतिशत इससे ज्यादा है, लेकिन वहां मुस्लिम आबादी का प्रतिशत उससे भी ज्यादा है। एक महत्वपूर्ण तथ्य इन आंकड़ों से यह पता चलता है कि पुलिस में मुस्लिम प्रतिनिधित्व पिछले दशक में घटा है। साल २००७  में उनका प्रतिशत ७.५५ था, जो  २०१२  में ६.५५ हो गया। सच्चर आयोग ने यह सिफारिश की थी कि जिन पुलिस थाना क्षेत्रों में बड़ी मुस्लिम आबादी रहती है, उन थानों में कम से कम एक मुस्लिम इंस्पेक्टर या सब इंस्पेक्टर की तैनाती हो। यह सिफारिश अगर लागू करनी भी हो, तो देश के ज्यादातर राज्यों में इतने पुलिस अफसर ही नहीं मिलेंगे। पिछली सरकार ने राज्यों से कहा था कि पुलिस में  मुस्लिम भर्ती को प्रोत्साहित करने के लिए कदम उठाए जाएं, लेकिन राज्यों ने उस पर ध्यान नहीं दिया।

ये चीजें इसलिए महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि भारत में सांप्रदायिक विद्वेष की समस्या मौजूद है और पुलिस पर सांप्रदायिक होने के आरोप अक्सर लगते रहे हैं। कुख्यात मलियाना कांड में तो पुलिस वालों पर ही हिंसा के आरोप लगे थे। यह भी देखा गया है कि अल्पसंख्यकों को पुलिस पर बहुत भरोसा नहीं होता और यह बात भी सांप्रदायिकता को भड़काने में सहायक होती है। एक राय यह है कि धार्मिक आधार पर भर्ती से पुलिस का सांप्रदायिक होना घटेगा नहीं, बल्कि बढ़ेगा। पुलिस को ज्यादा पेशेवर और निष्पक्ष बनाने के लिए किए गए सुधार ही उसे सांप्रदायिक पक्षपात से रोक सकते हैं। 

श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com 
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