राकेश दुबे@ प्रतिदिन। एक शहाबुद्दीन को सजा मिलने या चुनावी राजनीति से बाहर होने का अर्थ यह नहीं है, कि आपराधिक पृष्ठभूमि के जन-प्रतिनिधियों का दौर खत्म हो गया है।अगर आपराधिक रिकॉर्ड वाले जन-प्रतिनिधियों की लिस्ट देखी जाए, तो पता चलता है कि राजनीति के अपराधीकरण से किसी पार्टी को सचमुच परहेज नहीं है, भले ही सार्वजनिक तौर पर सारी पार्टियां, दूसरे दलों पर अपराधियों को शह और शरण देने के आरोप लगाती हैं। यह भारतीय राजनीति का सबसे बड़ा पाखंड है, जिससे कोई भी अछूता नहीं है। शहाबुद्दीन जैसे लोग भारतीय लोकतंत्र की कुछ बुनियादी कमियों को सामने लाते हैं।
ऐसा नहीं है कि वे सिर्फ आतंक के जरिए या डरा-धमकाकर ही चुनाव जीतते हैं। अपने क्षेत्र के एक बड़े तबके में, खास तौर पर कमजोर वर्ग में वह सचमुच लोकप्रिय होते हैं। दरअसल, हमारा प्रशासन तंत्र कमजोर वर्ग के प्रति उपेक्षा का रवैया रखता है। ऐसे में इस तरह के अपराधी नेता उनके काम आते हैं। चाहे थाने से किसी को छुड़वाना हो, किसी का कोई सरकारी काम हो या किसी बीमारी या संकट में मदद करनी हो, ऐसे अपराधी एक संविधानेतर सत्ता तंत्र की तरह उनके काम आते हैं। इसके अतिरिक्त वे सरकारी या निजी क्षेत्र का भ्रष्टाचार और अपराध के जरिए भरपूर दोहन करते हैं, जिससे उनका आतंक और दबदबा कायम रहता है।
इस लोकप्रियता और आतंक की दोहरी ताकत के जरिए ये चुनाव जीत जन-प्रतिनिधि बनकर सत्ता तंत्र में शामिल हो जाते हैं। इनका निहित स्वार्थ इसमें होता है कि प्रशासन तंत्र ठीक से काम न करे, वरना गरीबों को उनकी जरूरत नहीं रहेगी, और उनका आपराधिक साम्राज्य भी नहीं चल सकता। इसलिए इनका सत्ता तंत्र में होना राजनीति के लिए जितना खतरनाक है, उतना ही नुकसानदेह गरीबों के विकास के लिए भी है, क्योंकि अपराधियों का हित इसमें है कि गरीब हमेशा गरीब, कमजोर और उन पर आश्रित बने रहें। शहाबुद्दीन लोकतंत्र पर इस खतरे के प्रतीक है , लेकिन यह बीमारी अकेले उसके सजा पाने से खत्म नहीं होगी। इसके लिए सभी पार्टियों को अपने संकीर्ण स्वार्थ से ऊपर उठकर सोचना हो
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
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