नई दिल्ली। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हत्या और गैर इरादतन हत्या के बीच अंतर को स्पष्ट करते हुए एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि हत्या के इरादे से किए गए हमले के बाद छूट कितनी गहरी थी। इस बात से भी फर्क नहीं पड़ता कि हमले में पहुंचाई गई चोट मृत्यु के लिए प्रत्यक्ष कारण है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यदि हत्या के इरादे से हमला किया गया। हल्की चोट के कारण कोई दूसरी बीमारी हुई और उस बीमारी के कारण मृत्यु हो गई। तब इसे, बीमारी से मृत्यु नहीं कहा जाएगा और क्योंकि चोट गंभीर नहीं थी इसलिए गैर इरादतन हत्या भी नहीं माना जा सकता। ऐसी स्थिति में भी अपराध की गंभीरता कम नहीं होती।
कैसे तय करेंगे कोई मृत्यु, गैर इरादतन हत्या है या हत्या
यह फैसला पिछले सप्ताह हुआ है। जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस एस. रवींद्र भट की पीठ ने कहा कि यहां ऐसी कोई कोई रूढ़िवादी धारणा या सूत्र नहीं हो सकता है कि जहां पीड़ित की मौत चोट लगने के कुछ समय के अंतराल पर हो जाए और उसमें अपराधी के अपराध को गैर इरादतन ही माना जाए। कोर्ट ने कहा कि हर मामले की अपनी अनूठी तथ्य स्थिति होती है। इसलिए वह गैर इरादतन हत्या है या हत्या यह तथ्य और परिस्थितियां तय करेंगी।
कोर्ट ने इस दौरान यह भी कहा कि हालांकि किसी केस में जो महत्वपूर्ण है वह चोट की प्रकृति है और क्या यह सामान्य रूप से मौत की ओर ले जाने के लिए पर्याप्त है"। कोर्ट ने आगे कहा कि ऐसे मामले में चिकित्सा पर कम ध्यान दिए जाने जैसे तर्क प्रासंगिक कारक नहीं हैं।
चोट के कारण बीमारी से मौत, अपराध माना जाएगा या नहीं
पीठ ने कहा कि इस मामले में चिकित्सकीय ध्यान की पर्याप्तता या अन्य कोई प्रासंगिक कारक नहीं है, क्योंकि पोस्टमॉर्टम करने वाले डॉक्टर ने स्पष्ट रूप से कहा था कि मौत कार्डियो रेस्पिरेटरी फेलियर के कारण हुई थी, जो चोटों के परिणामस्वरूप हुई थी। "इस प्रकार चोटें और मौत दोनों एक दूसरे के बहुत नजदीक सीधे एक दूसरे से जुड़े हुए थे।
चोट के बारे में डॉक्टर की रिपोर्ट अंतिम नहीं
"सुनवाई के दौरान याचिकाकर्ताओं के वकील ने आग्रह किया था कि पीड़िता की मौत हमले के 20 दिन बाद हुई थी। चोट और मौत में इतना समय बीत जाने से यह पता चलता कि चोटें प्रकृति के सामान्य क्रम में मृत्यु का कारण बनने के लिए पर्याप्त नहीं थीं। मगर कोर्ट ने इन दलीलों को खारिज कर दिया।
पीठ ने कहा कि ऐसे कई निर्णय हुए हैं, जो इस बात पर जोर देते हैं कि समय की इस तरह की चूक को अपराधी की जिम्मेदारी को हत्या के अपराध से घटाकर गैर-इरादतन मानव वध कर देती है, जो हत्या की श्रेणी में नहीं आता है। मगर इसे धारणा नहीं बनाया जा सकता।
दोषियों ने हाईकोर्ट के फैसले को दी थी चुनौती
याचिकाकर्ताओं ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के उस आदेश को चुनौती देते हुए शीर्ष अदालत में याचिका प्रस्तुत की थी, जिसमें कोर्ट ने उन्हें हत्या का दोषी ठहराया था। पुलिस के अनुसार फरवरी 2012 में आरोपी ने मृतक उस वक्त हमला कर दिया था, जब वह विवादित जमीन को जेसीबी से समतल करने का प्रयास कर रहा था। पीड़िता की मौत के बाद पीड़ित परिवार ने आरोपियों के खिलाफ एक आपराधिक मामला दर्ज किया था।
आईपीसी की धारा 302 और 304 में अंतर
अभियुक्तों ने तर्क दिया कि कथित घटना के लगभग 20 दिनों के बाद और सर्जरी में जटिलताओं के कारण पीड़िता की मौत हुई है। इसलिए उनकी कथित हरकतें मौत का कारण नहीं थीं। मगर शीर्ष अदालत ने कहा कि सवाल यह है कि क्या अपीलकर्ता हत्या के अपराध के दोषी हैं, धारा 302 के तहत दंडनीय है, या क्या वे कम गंभीर धारा 304, आईपीसी के तहत आपराधिक रूप से उत्तरदायी हैं।
इरादतन और गैर इरादतन हत्या में क्या अंतर होता है
पीठ ने कहा, "यह अदालत यह स्वीकार करने में कोई कठिनाई नहीं देखती है कि सबसे पहले अपीलकर्ता हमलावर थे, दूसरे उन्होंने मृतक पर कुल्हाड़ियों से हमला किया और तीसरा मृतक निहत्था था। शीर्ष अदालत ने अपीलकर्ताओं के इस तर्क को स्वीकार नहीं किया कि मौत अनजाने में "अचानक झगड़े" के कारण हुई थी।
Difference between iPC section 302 and 304
उच्च न्यायालय के आदेश को बरकरार रखते हुए शीर्ष अदालत की पीठ ने ने कहा कि "दो महत्वपूर्ण चश्मदीद गवाहों की गवाही से यह स्थापित होता है कि जब मृतक अपनी संपत्ति पर सेप्टिक टैंक को समतल कर रहा था, तो आरोपियों/अपीलकर्ताओं ने उसके साथ दुर्व्यवहार करना शुरू कर दिया। उसने उनसे ऐसा नहीं करने के लिए कहा। अपीलकर्ता, जो बगल की संपत्ति में थे, दीवार पर चढ़ गए। मृतक के घर में घुस गया, और उस पर कुल्हाड़ियों से हमला किया।
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