राकेश दुबे@प्रतिदिन। भारत आज सकल रूप से अमेरिका और चीन के बाद कार्बन का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक देश है। हालांकि यह सच्चाई भी कायम है कि भारत का प्रति व्यक्ति उत्सर्जन अब भी बहुत कम है। इस बिंदु पर भारत पहले कई बार विकसित देशों से उलझता रहा है, लेकिन अब ज्यादा उलझाव पैदा करने की जरूरत नहीं। हम पेचीदगियों में न पड़ें, यह अच्छी बात है। आखिर हम जो लक्ष्य तय कर रहे हैं उससे पूरी मानव जाति का भला है। हालांकि अभी यह समझना जल्दबाजी होगी कि भारत की इस घोषणा से नई संधि का रास्ता खुल गया है। कुछ मुद्दे हैं, जिन पर अब भी विकासशील और विकसित देशों में टकराव की गुंजाइश है।
गौर करने वाली बात है कि इनमें भारत का रोल काफी अहम है। सबसे बड़ा सवाल तकनीक और धन का होगा। जब क्योटो प्रोटोकॉल की वार्ताएं चल रही थीं, उस समय विकसित देशों ने पिछड़े और विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन रोकने के उपाय करने के लिए धन और तकनीक देने का वादा किया था। यह वादा पूरी तरह से अभी पूरा नहीं हुआ है। विकासशील देश इस सिद्धांत को मानते हैं कि चूंकि ऐतिहासिक रूप से विकसित देशों ने अधिक प्रदूषण फैलाया है, इसलिए उनकी जिम्मेदारी भी अधिक बनती है। विवाद का एक और बड़ा मसला विभिन्न देशों की ओर से तय योजना के अमल पर निगरानी और समीक्षा से जुड़ा हुआ है। भारत जैसे विकासशील देशों को अपेक्षा है कि इसमें उन्हें कुछ रियायत जरूर हासिल होगी। अगर विकासशील देशों की चिंताओं पर विकसित देश ध्यान नहीं देते तो न तो वार्ता का प्रतिफल कुछ निकलेगा और न ही पर्यावरण की दशा सुधरेगी।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में वार्ता पर वार्ता हो रही है लेकिन इसके परिणाम आशानुरूप नहीं दिख रहे। ज्यादातर वार्ताओं की सफलता विकसित देशों के रवैये पर निर्भर करती है। दरअसल विकसित देशों द्वारा अब क्योटो प्रोटोकाल को खारिज करने की कोशिश की जा रही है। विकसित देश अपने और विकासशील देशों के बीच के मूलभूत अंतर को नजरअंदाज कर आगे बढ़ने की नीति पर चल रहे हैं। उम्मीद की जाती है कि विकसित देश कार्बन उत्सर्जन की ठोस योजना पेश करें लेकिन वे कार्बन उत्सर्जन से जुड़े आंकड़े सामने लाने को लेकर गंभीरता नहीं दिखा रहे। उनकी पूरी कोशिश है कि क्योटो प्रोटोकाल की जगह एक नई व्यवस्था बनाई जाए।
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com
