काले धन की वापिसी, वादा था वादे का क्या ?

राकेश दुबे@प्रतिदिन। काले धन की समस्या दिनोंदिन और भयावह होती जा रही है।आने और जाने के दरवाजे वैसे ही खुले हैं, जैसे पहले थे। राजनीति में यह एक अहम मुद्दा जरूर बन गया है। भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनावों में इस मसले को खूब तवज्जो दी। यह वादा जोर-शोर से दोहराया कि अगर उन्हें केंद्र की सत्ता में आने का मौका मिला, तो विदेशों में जमा काला धन जल्दी ही वापस लाया जाएगा, और हर गरीब भारतीय के खाते में पंद्रह लाख रुपए जमा किए जाएंगे। भाजपा जो सपना दिखाया था उसे अब शायद वे याद करना नहीं चाहती।

भाजपा के बदले हुए सुर का अंदाजा पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की इस टिप्पणी से लगाया जा सकता है कि काले धन की वापसी का नारा एक चुनावी जुमला भर था। दरअसल, जहां केवल विदेशी खातों की बात हो और देश के भीतर काले धन के स्रोतों की तरफ से आंख मूंद ली जाए, वहां संजीदगी की उम्मीद करना बेमानी है। अगर हमारी राजनीतिक पार्टियां और सरकारें काले धन की समस्या को लेकर गंभीर होतीं, तो इसके स्रोतों और प्रक्रियाओं को बंद करने की तरफ ध्यान देतीं। तब चुनावी चंदे को पारदर्शी बनाने और चुनाव सुधार के प्रति भी उनका वह रुख नहीं होता जो अब तक बना हुआ है।

काले धन की बाबत एक ही महत्त्वपूर्ण कदम उठाया जा सका है, वह है न्यायमूर्ति एमबी शाह की अध्यक्षता में एसआइटी का गठन, जिसका श्रेय सर्वोच्च न्यायालय को जाता है। एसआइटी ने अपनी तीसरी और अब तक की सबसे विस्तृत रिपोर्ट पिछले हफ्ते सरकार को सौंपी। भारत की अर्थव्यवस्था में काले धन का अनुपात कितना है इस बारे में अलग-अलग अनुमान रहे हैं। एसआइटी ने भी इस संबंध में कोई निश्चित आंकड़ा या अनुमान पेश नहीं किया है, पर उसकी रिपोर्ट यह जरूर बताती है कि देश में काले धन की समस्या बहुत व्यापक है और अर्थव्यवस्था के तमाम क्षेत्र इसकी जद में हैं।

एसआइटी ने कहा है कि शेयर बाजार में अधिकतर पैसा पी-नोट्स के जरिए आ रहा है। गौरतलब है कि पी-नोट्स की व्यवस्था पहचान छिपा कर निवेश करने की छूट देती है। एसआइटी ने सेबी से कहा है कि वह ऐसे विदेशी धन के वास्तविक स्रोत का पता लगाए और शेयर बाजार के असामान्य उतार-चढ़ाव पर नजर रखे। इसी तरह एसआइटी की एक अहम सिफारिश यह है कि शैक्षणिक और धार्मिक संस्थाओं को नकद दान देने पर रोक लगे, सारे दान चेक के जरिए दिए जाएं। क्रिकेट को सट्टेबाजी से मुक्त करने और फर्जी कंपनियां बना कर किए जाने वाले निवेश और लेन-देन पर रोक लगाने की तजवीज भी रिपोर्ट में बताई गई है। ये सिफारिशें सरकार के लिए बाध्यकारी हों या नहीं, सरकार को इन पर अमल करने में हिचक क्यों होनी चाहिए, जब वह काले धन से कड़ाई से निपटने को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता घोषित करती रही है? यह रिपोर्ट हकीकत का एक आईना भी है और सरकार के लिए एक बड़ा इम्तहान भी।

श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com

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