न्यायाधीशों को न्याय दिलाने न्यायालय की शरण

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जबलपुर। हाईकोर्ट में न्यायाधीश रहने के दौरान मैंने हजारों पीड़ितों को इंसाफ दिया और आज खुद के लिए इंसाफ की खातिर उसी न्यायालय में याचिका लगानी पड़ी। देश में न्यायाधीश के सेवानिवृत्त होने के बाद यूजलेस मानकर उसके नॉलेज का कोई इस्तेमाल नहीं किया जाता। यह पीड़ादायक है। यह कहना है सेवानिवृत्‍त न्‍यायाधीश आरके गुप्‍ता का।

उन्‍होंने कहा 'मैं एक ऐसे मामले में हाईकोर्ट की शरण में हूं जिसमें हर सेवानिवृत्त न्यायाधीश को अपने हक की दरकार है। यह मामला 1992 से सरकारों के पास विचाराधीन है। यह जानकर आश्चर्य होगा कि पेंशन के रूप में एक हाईकोर्ट जज को महज 21 हजार रुपए और सेक्रेट्रिएट अलाउंस पहले 9 हजार रुपए मिलता था जो कुछ साल पहले 12 हजार रुपए कर दिया गया।'

पेंशन निर्धारण का तरीका भी सरकार ने सेवा देने के सालों के आधार पर किया है। जो जज 14 साल से ज्यादा अपनी सेवाएं देता है उसे फुल पेंशन मिलती है यानी 40 हजार रुपए और 107 प्रतिशत डीए। इस पर शर्त यह भी रहती है कि कोई भी सेवानिवृत्त अपने कैडर वाले प्रदेश के हाईकोर्ट या ट्रिब्यूनल में पैरवी नहीं कर सकता।

इससे उसकी योग्यता को 62 साल में ही न्यायक्षेत्र में व्यर्थ मान लिया जाता है। जबकि विदेशों में रिटायर्ड जज को उसकी इच्छा पर सेवानिवृत्ति दी जाती है। हमारी उम्र से ज्यादा के अनेक वकील आज भी विभिन्न हाईकोर्ट व सुप्रीम कोर्ट में पैरवी करके हमें मिलने वाली पेंशन से कई गुना कमा लेते हैं।

'बलिदान' के पीछे का दर्द
वकील से हाईकोर्ट जज बनने वालों को बेहतर भविष्य का सब्जबाग दिखाया जाता है, लेकिन हकीकत कुछ और ही है। जितने भी हाईकोर्ट जज बार से बने हैं उनमें से गिने-चुने ही ऐसे हैं जिन्होंने 14 साल की सेवा अवधि पूरी की और फुल पेंशन के हकदार बने। मैं और मेरे जैसे कई हाईकोर्ट जज अधिकतम 5 या 7 साल बाद रिटायर हो गए। ऐसे में उन्हें पेंशन के नाम पर मात्र झुनझुने से काम चलाना पड़ रहा है।

दोहरा रवैया चिंताजनक
न्यायिक सेवा क्षेत्र(प्रमोटी)से हाईकोर्ट जज बनने वालों को पूर्व सेवा अवधि जोड़कर पेंशन दी जाती है। साथ ही अन्य लाभ भी उसी हिसाब से तय होते हैं। ऐसे में जाहिर सी बात है कि उनका रिटारयमेंट वकील से जज बनने वालों से कहीं बेहतर तरीके से कटता है। यह दोहरा रवैया चिंताजनक और समानता के अधिकार व न्याय की मूल मंशा के खिलाफ है।

1992 से चल रहा हक का संघर्ष
1992 जस्टिस कुलदीप सिंह ने सबसे पहले पेंशन में वकालत अनुभव की अवधि जोड़े जाने की आवाज उठाई। सुप्रीम कोर्ट में उनकी याचिका पर फैसले से पहले ही केन्द्र सरकार ने मांग मानते हुए 10 साल की वकालत के अनुभव को जोड़कर रिटायर्ड जज की पेंशन निर्धारित करने का रिजोल्यूशन पारित कर लिया। इससे सुप्रीम कोर्ट के जजों को लाभ मिलने लगा। लेकिन हाईकोर्ट के जज वंचित रह गए। यह लड़ाई कई स्तर पर चलती रही। हर बार सरकार ने वादे किए लेकिन पूरा नहीं किया गया।

राज्य सरकारों ने नहीं बरती गंभीरता
5 मार्च 2014 को जस्टिस पी रामकृष्णम राजू की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला आया। जिसके बाद राज्य सरकारों के पास सिर्फ विधिवत रूल बनाने का काम शेष रह गया। लेकिन राज्य सरकारों ने इस दिशा में गंभीरता नहीं बरती। जबकि सिर्फ संसद में रूल प्रस्तुत करने पर हाईकोर्ट के रिटायर्ड जजों को उनका हक मिलने लगता। दिलचस्प बात तो यह है कि सीजे कांफ्रेंस में मुद्दा उठने के बाद भी रूल बनाने की जेहमत नहीं उठाई गई।

दूसरे प्रदेशों से सेक्रेटिएट अलांउस
आलम यह है कि जो हाईकोर्ट जज ट्रांसफर होकर दूसरे राज्य जाते हैं और सीजे जैसी पोस्ट पर सेवा देते हैं उन्हें सेवानिवृत्ति के बाद सेक्रेटिएट अलाउंस के लिए दूसरे प्रदेशों पर आश्रित रहना पड़ता है। मतलब वे रिटायर होकर बस एक काम करते हैं दूसरे राज्यों से पत्राचार।

(जैसा कि मध्यप्रदेश हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश आरके गुप्ता ने पत्रकार रवीन्द्र दुबे/ सुरेन्द्र दुबे को बताया।)


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