बदलने वाला है गरीबी का पैमाना | Hindi News | National News

योगिमा शर्मा/नई दिल्ली। पीएम नरेंद्र मोदी की अगुवाई में चल रही एनडीए सरकार को विपक्ष गरीब विरोधी और अमीर हितैषी होने का आरोप लगाता रहा है और कुछ हद तक यही संदेश जनता के बीच भी गया है। जाहिर है यह सरकार के लिए चिंता का सबब है, जिससे पार पाने की तरकीब पर मंथन भी किया जा रहा है। इसी कड़ी में सरकार देश में गरीबों की तादाद बढ़ाने पर भी विचार कर रही है। जी हां, चौंकिए मत। यह सारा खेल आंकड़ों का है। 

दरअसल, गरीबी का लेवल तय करने के लिए प्रति व्यक्ति दैनिक खर्च का जो विवादित पैमाना बनाया गया है, उसे नीति आयोग घटा सकता है।  ऐसा करने से आबादी में गरीबों का हिस्सा 40 पर्सेंट तक जा सकता है। दो वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि इससे देश में गरीबों की संख्या लगभग 48.40 करोड़ तक पहुंच सकती है।

गरीबी के आंकड़े का राजनीतिक महत्व रहा है। एनालिस्ट्स ने कहा कि अगर कोई सरकार अपनी गरीब समर्थक इमेज चमकाना चाहती हो और वह पूंजीपतियों से सांठगांठ के आरोपों का सामना कर रही हो, तो गरीबों की ज्यादा संख्या दिखाने की कवायद से उसे फायदा हो सकता है। नीति आयोग के वाइस चेयरमैन अरविंद पनगढ़िया की अध्यक्षता वाला 14 सदस्यीय कार्यबल 40 पर्सेंट के लेवल पर काम कर रहा है। यह सब नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) के 2011 के आंकड़ों पर आधारित है। उम्मीद है कि यह कार्यबल जून में पीएम नरेंद्र मोदी को अपनी रिपोर्ट सौंपेगा।

पिछले महीने इस कार्यबल की एक बैठक हुई थी। इसमें शामिल रहे एक सरकारी अधिकारी ने बताया, 'कार्यबल कई कदमों पर विचार कर रहा है, लेकिन आबादी में गरीबों की संख्या को हकीकत के ज्यादा करीब दिखाने की बात पर लगभग एक राय बन गई है।' मीटिंग में मौजूद रहे दूसरे अधिकारी ने कहा कि सरकार तो इस आकलन का इस्तेमाल विश्लेषण के कार्यों में करना चाहती है क्योंकि एनएसएसओ के आंकड़े हर पांच साल पर रिवाइज किए जाते हैं। इससे सरकार को यह पता लगाने में भी मदद मिलेगी कि सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं का फायदा गरीबों को मिल पा रहा है या नहीं। साथ ही, प्रति व्यक्ति दैनिक खर्च के आधार पर गरीबी की रेखा तय करने से जो विवाद हुआ था, वैसी स्थिति से भी सरकार बच जाएगी।

गरीबी रेखा का महत्व यह भी है कि सोशल सेक्टर की कई योजनाएं इस रेखा से नीचे गुजर-बसर करने वालों के लिए होती हैं। अगर गरीबी रेखा को बहुत नीचे तय कर दिया जाए तो कई ऐसे लोगों को इन योजनाओं का फायदा नहीं मिलेगा, जो उसके वाजिब हकदार हो सकते होंगे। अगर इस रेखा को काफी उठा दिया जाए तो इसमें ऐसे लोगों की संख्या बढ़ सकती है, जिन्हें इन योजनाओं की जरूरत नहीं होगी। इस तरह लागत भी बढ़ेगी। सुरेश तेंडुलकर कमिटी ने ग्रामीण इलाकों में 27 रुपये प्रति व्यक्ति दैनिक खर्च और शहरी क्षेत्रों में 33 रुपये प्रति व्यक्ति दैनिक खर्च की लिमिट से नीचे गुजर-बसर करने वालों को गरीब मानने की बात की थी। कमिटी ने 2011-12 में यह बात कही थी।

इस तरह आबादी का 22 पर्सेंट हिस्सा गरीबी रेखा से नीचे आया। इस पर विवाद हो गया था। आलोचकों ने कहा था कि ये आंकड़े हकीकत से परे हैं। इसकी समीक्षा के लिए सी रंगराजन कमिटी बनाई गई। रंगराजन कमिटी ने ग्रामीण इलाकों के लिए लिमिट बढ़ाकर 32 रुपये और शहरी क्षेत्रों के लिए 47 रुपये की थी। इस तरह गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वालों का आबादी में हिस्सा 30 पर्सेंट हुआ था। 2014 की इस रिपोर्ट से भी आलोचक शांत नहीं हुए। नरेंद्र मोदी सरकार ने भी इसे स्वीकार नहीं किया और देश में गरीबी का आकलन करने के लिए उसने एक और कमिटी बना दी।

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