राकेश दुबे@प्रतिदिन। आखिर सुप्रीम कोर्ट ने जन भावना समझ ली और विज्ञापन को लेकर एक साफ आदेश दे दिया| अभी राजनीतिक दल और सरकारें जयंती, पुण्यतिथि, योजनाओं की जानकारी ही नहीं, लोकार्पण, शिलान्यास जैसे अवसरों पर भी हर माध्यम में विज्ञापन देते आये हैं। कई विज्ञापन योजनाओं से अधिक विशिष्ट व्यक्तियों के महिमामंडन के लिए होते हैं।
राजनीतिक दल इन्हें अपने खर्च से नहीं करदाताओं की राशि से कराते हैं, ऐसा प्रचार लोकतंत्र में सही नहीं है। करदाताओं की राशि का एक-एक पैसा विशुद्ध रूप से देश के विकास के लिए इस्तेमाल हो, यह आदर्श स्थिति होगी। केंद्र व राज्य सरकारों द्वारा जारी विज्ञापनों पर मंत्रियों, नेताओं, अफसरों की तस्वीरों पर सर्वोच्च न्यायालय का एक महत्वपूर्ण फैसला आया है, जिसमें कहा गया है कि सरकारी विज्ञापनों पर केवल राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्य न्यायाधीश व दिवंगत राष्ट्रीय नेताओं जैसे महात्मा गांधी व नेहरूजी की तस्वीरें ही प्रकाशित की जा सकती हैं।
फैसले में यह भी कहा है कि इन तीन संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तित्वों से पहले उनकी मंजूरी लेनी होगी कि विज्ञापन में उनकी तस्वीर का इस्तेमाल किया जाये या नहीं। यह फैसला उन सभी विज्ञापनों पर लागू होगा जो केंद्र एवं राज्य सरकारें विभिन्न योजनाओं, कार्यक्रमों के प्रति जागरूकता पैदा करने के लिए जारी करती हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने विगत वर्ष अक्टूबर में प्रो.एनआर माधव मेनन की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय पैनल का गठन किया था, जिसने सरकारी विज्ञापनों में जनता के धन का अपव्यय रोकने के कुछ उपाय सुझाए।
पैनल ने कहा कि हर मंत्रालय व सार्वजनिक निकाय को सार्वजनिक विज्ञापनों पर होने वाले खर्च का ब्यौरा देना चाहिए साथ ही कैग से इसका आडिट भी होना चाहिए। पैनल ने कहा कि सरकारी विज्ञापन सत्तारूढ़ दल के लाभ के लिए और विपक्ष की निंदा करने के लिए इस्तेमाल नहीं होना चाहिए। यह सुझाव भी दिया गया कि महत्वपूर्ण व्यक्तियों की जयंती व पुण्यतिथियों पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय से ही विज्ञापन जारी हों। सुप्रीम कोर्ट इसके लिए धन्यवाद की पात्र है उसे इस विषय पर भी सोचना चहिये की जनता से वसूले गये कर से जो निर्माण होते हैं उनकी शब्दावली क्या हो ? जनता के पैसे पर “नेता जी का नाम और अथक प्रयास” भी न्यायोचित नहीं है|
श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क 9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com
