कमल याज्ञवल्क्य/खरगोन/रायसेन। कहते हैं सकारात्मक और अच्छी सोच के साथ किए गए प्रयासों का फल भी अच्छा ही होता है। फिर चाहे वह खुद के लिए हो या सार्वजनिक। ऐसा ही कुछ काम इन दिनों गांव-गांव में हर कहीं चौक चौराहों पर देखने को मिल रहा है। यह वह काम है जिससे कई परिवारों को रोजगार तो मिल ही रहा है, गांव में जगह-जगह उड़ती पुरानी साड़ियों और सीमेंट आदि प्लास्टिक की बोरियों के कचरे को जलाने के कारण पर्यावरण को होने वाले नुकसान से भी बचाया जा रहा है।
खास बात यह भी है कि यह रस्सियां काफी मजबूत तो होतीं ही हैं साथ ही बाजार की रस्सियों से काफी सस्ती भी हैं । यह वही तकनीक है जो करीब तीन दशक पहले अपनाई जाती थी, फर्क इतना है पहले इसके लिए लकड़ी से बनी देशी मशीन जती और भौंरा का उपयोग करके पलाश के पेड़ की जड़ों के बक्कल से बनाया जाता था अब जुगाड़ की मशीन से बनाया जा रहा है।
मोटर साइकल पर जुगाड़ की मशीन
इन दिनों अंचल के गांव -गांव में चौक-चौराहों पर दस-बीस लोगों का झुण्ड हाथों में पुरानी साड़ियां और सीमेंट आदि प्लास्टिक की खाली बोरियां लिए मिल जाएंगे। बीच में एक मोटर साइकल पर बंधी हुई जुगाड़ की मशीन पर इनसे रंग-बिरंगी रस्सियां बनाने का काम करने वाले दो लोग मिलते हैं। ऐसे ही एक गांव में रविवार को जब यह काम किया जा रहा था तो यह संवाददाता भी एक घंटे तक रस्सियां बनाने के काम का जायजा लेता रहा। इस दौरान महज कुछ ही मिनटों में एक पुरानी साड़ी की अच्छी मोटाई वाली करीब 17 फीट लंबी रंगीन रस्सी बनकर तैयार हो गई। किसान रतनसिंह तिवारी ने बताया कि अनुपयोगी पुरानी साड़ियों से बनी यह रस्से काफी मजबूत हैं। इनसे किसानी के समय ट्राली में फसल ढ़ोने में उपयोग किया जाएगा। किसान शिवनारायण शर्मा ने बताया कि पहले लकड़ी की जती और भौंरा द्वारा पलाश की जड़ों के बक्कल से रस्सियां बनाते थे,जिसमें काफी समय तो लगता था ही और मेहनत का काम होता था । विनोद उपाध्याय ने बताया कि सीमेंट की खाली बोरियों की रस्सी बनबाई है । किसानी सहित अन्य कामों में इन मजबूत रस्सियों का उपयोग कई सालों तक करेंगे । रामदर्शन कहते हैं यह रस्सियां बाजार से काफी सस्ती और अच्छी हैं ।
ऐसे होती है पर्यावरण रक्षा
हमारी पड़ताल में यह बात भी सामने आई कि आमतौर पर अनुपयोगी पुरानी साड़ियों और प्लास्टिक की खराब बोरियों को गांवों के बाहर हर कहीं या तो फेंक दिया जाता है या जला दिया जाता है। ऐसे में जहां इससे निकलने वाले धुंआ से पर्यावरण को नुकसान होता है वहीं खेतों में काफी समय तक प्लास्टिक की बोरियों के नष्ट न होने के कारण भी नुकसान होता है । ऐसे में यह सबसे अच्छा काम है कि कम दाम में जहां रस्सियां बन रहीं है वहीं पर्यावरण भी सुरक्षित है ।
बाजार से सस्ती और मजबूत होती हैं
भास्कर ने जब इस तरीके से बनी सस्सियों और बाजार में मिलने वाली रस्सियों की तुलना की तो काफी अंतर पाया । जहां बाजार में रेशम की रस्सी 130 से 150 रूपये किलो मिलती है और नायलोन की रस्सी का रेट 120 से 130 रूपये किलो है, वहीं फालतू साड़ियों और बोरियों से बनी इतनी ही लंबी रस्सियां मात्र 30 रूपये में बन जाती हैं । इनकी उम्र भी करीब दस साल होती है। खरगोन में हार्डवेयर की दुकान के बिष्णुप्रसाद राय और महेश राय भी मानते हैं कि आजकल गांवों में पुरानी साड़ियों और प्लास्टिक की बोरियों से रस्सी बन रहीं हैं वह काफी मजबूत तो हैं ही किफायती भी हैं।
कमा लेते हैं अच्छा खासा
अपनी मोटर साइकल पर बंधी छोटी सी जुगाड़ की मशीन के साथ गांव-गांव जाकर यह काम करने वाले रायसेन जिले के नरवर गांव के रहने वाले तुलसीराम मेहरा ने भास्कर को बताया कि वह बेरोजगारी से परेशान थे। हर समय कुछ ऐसा करने की सोचते थे जिससे परिवार की रोजी रोटी भी चलती रहे और कुछ अच्छा भी हो जाए । ऐसे में यह आईडिया आया और काम शुरू कर दिया । वह बताते हैं कि एक गांव में एक दिन में करीब 800 से 1000 हजार रूपये तक का काम आसानी से मिल जाता है। तुलसीराम मेहरा ने बताया कि एक साड़ी की रस्सी बनाने के 15 रूपये मिलते हैं तथा प्लास्टिक की एक बोरी के पांच रूपये के हिसाब से रस्सी बनाते हैं। वह खुश हैं कि आराम से परिवार की रोजी-रोटी चल रही है ।