डाॅ अजय खेमरिया। यूएस ढेबर 1955 से 1959 तक कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। डाॅं शंकर दयाल शर्मा 1972 से 74 तक इनके आलावा जेबी कृपलानी, पट्टाभी सीतारमैया पुरूषोत्तम दास टंडन, निजलिंगप्पा, देवकांत बरूआ सहित कुल सत्रह लोग 1883 में जन्मी कांग्रेस पार्टी के 1947 से अब तक अध्यक्ष रहे है।
आजादी को 68 साल हो चुके है और इन 68 सालो में से 40 साल कांग्रेस की कमान नेहरू गांधी खानदान के पास ररही है। आज का नव कांग्रेसी जो यू.एन.ढेबर या कृपलानी जैसे किसी कांग्रेसी को नही जानता। कांग्रेस कार्यकर्ता नेता या पार्टी में कोई भेद भी नही समझता है क्योकि उनके लिए कांग्रेस का मतलब सिर्फ नेहरू गांधी परिवार ही है। जो कांग्रेस कभी आजादी की लडाई का मंच थी वह एक परिवार की जागीर बन गयी क्योकिं जिस वैचारिक भूमि पर कांग्रेस का भवन खडा था वहां सत्ता ने सबको खत्म कर दिया।
पर्सनेल्टी कल्ट या व्यक्ति पूजा ने इस विचारधारा केन्द्रित राजनीतिक दल का ऐसा हाल किया कि अब वह ‘एक व्यक्ति एक परिवार ‘ के अंधविश्वास में घिरकर पतन की पराकाष्ठा पर आ पहुंची है 59 दिन की मौज मस्ती से भारत पहुंचे राहुल गांधी के आगमन पर कांग्रेसियों का दिल्ली में उनके स्वागत सत्कार में जुटना और खुशियां मनाना ऐसा लगता है मानो कांग्रेस में नया अवतार पुरूष आ गया है. पूरी कांग्रेस ने जिस तरह उनका स्वागत किया वह इस पार्टी के नेतृत्व के मामले में अंधविश्वास और अविश्वसनीयता को प्रदर्शित करता है प्रगतिशील और नवाचार जिस कांग्रेस की विचारधारा के अंश को उसका अंधविश्वासी होना जरा अजीव लगता है लेकिन आप गहराई से सोचे तो स्पष्ट है कि कांग्रेस अंधविश्वास से घिरा एक तंत्र है।
हर आमोखास कांग्रेस कार्यकर्ता को यह अंध भरोसा है कि सोनिया-राहुल ही उनके तारणहार है. इसके इतर कांग्रेस का मतलब है कांगे्रस का समाप्त हो जाना या होना ही नहीं। जाहिर है अब कांग्रेस में कभी बगावत नही हो सकती क्योकि 2014 के ऐतिहासिक पराभव के बाद भी जब इस पार्टी में अपने नेतृत्व के विरूद्व संगठित सवाल नही उठाया गया और जिस तरह राहुल गांधी की रिलोंचिंग की जा रही है उससे स्पष्ट है कि कंाग्रेस में देवकांत बरूआ की आत्मा और विचार हमेशा जीवित और प्रभावी रहेगा (इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया के सूत्रधार)।
राहुल 59 दिन की छुट्टी से वापिस लौटे है कहां गया है कि वे चिंतन करके आये है। लेकिन लाख टके का सवाल यह है कि आत्मचिंतन की आवश्यक्ता है किसे ? राहुल या कांग्रेस पार्टी ? यानि इस बुनियादी अंतर को ही कांग्रेस पार्टी समझने को तैयार नही है। जो राहुल गांधी दस साल में सत्ता और राजनीति को सीख नही पाए वे 59 दिन में थाइलैंड, य ईटली और फा्रंस की यात्रा से कौन सा गुरूमंत्र लेकर आये होंगे ? समझा जा सकता है। इन दस वर्षो में उन्होने संगठन में तमाम प्रयोग किए. युवक कांग्रेस, एनएसयूआई में प्रत्यक्ष चुनाव पद्वति लागू की।
दोनो प्रयोग इतनी बुरी तरह पिटे कि बचा खुचा संगठन भी मृत हो गया। वरन संजय गांधी के दौर तक ये युवक कांग्रेस की तूती बोला करती थी। अंविका सोनी, अजय माकन, ललित नारायण मिश्र, ममता बनर्जी, नटवर सिंह तारिक अनवर, दिग्विजय सिंह, कमलनाथ, अहमद पटेल, मनीष तिवारी, संदीप दीक्षित जैसे तमाम नेता इस संगठन से निकले है. लेकिन आज कांग्रेस में इस रास्ते से निकले कहां है ? युवक कांग्रेस की चुनाव पद्वति ने कांग्रेस के भीतर अनेक कांग्रेस पैदा कर दी और वे अप्यस में एक दूसरे के राजनीतिक बैरी हो गए। कुछ यही हाल एनएसयूआई का हुआ।
नैसर्गिक नेतृत्व आगे लाने के नाम पर इन दोनो आनुषांगिक संगठनों में मनी, मसल्स माफिया का बोलवाला हो गया और कांग्रेस के लिए इनकी उपयोगिता शून्य सी रह गयी। यानि इलोवेशन के नाम पर राहुल का यह प्रयोग बुरी तरह फ्लाॅप साबित हुआ। राहुल ने टिकट वितरण में जो भी फार्मूले तय किय वे भी लोकसभा और विधानसभा में फैल रहे। कुछ लोकसभा क्षेत्रो में प्रायमरी सिस्टम लागू कर कार्यकर्ताओ की राय से टिकट वितरण का फार्मूलर अपनाया गया लेकिन किसी भी सीट पर इसे अमल में नही लाया जा सका।
असल में राहुल अपनी परिवारवादी छवि और स्थिति को दरकिनार कर संगठन में आंतरिक लोकतंत्र लाने की मशक्कत करते रहे लेकिन हर मोर्चे पर वे विफल साबित हुये। 2006 से कांग्रेस की सक्रिय राजनीति में जुडे राहुल के पास उपलब्धि के नाम पर कुछ भी ऐसा नही है जिसे वह पार्टी और सरकार के सामने साबित कर पाते। दस साल का समय कम नही होता है. लेकिन उन्होने इस कई मौके गंवाए जहां वे अपनी क्षमता और योग्यता को देश के सामने साबित कर सकते थे। दस साल सरकार की कमान अपने हाथ में रहने के बाबजूद वे कभी भी यह संदेश नही दे पाये कि देश में समस्याओ और उनके समाधान पर उनकी सोच कैसी है।
उल्टे एनजीओ टाईप नेताओ की राह पर उन्होने ऐसे निर्णय सरकार से कराये जो नये भारत के मानस, इच्छाओं और सपनो के विरूद्व थे। खाद्य सुरक्षा, मनरेगा, भूमि अधिग्रहण शिक्षा का अधिकार ऐसे मुक्तखोरी के कानून थे जिनसे देश का जमीन पर कुछ खास भला नही होना था. उल्टे मैदानी स्तर पर भृष्टाचार को बढावा मिला। यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल में घोटालों की बाढ सी लगी थी पर सजायाफ्ता नेताओ को बचाने वाले बिल को फाडकर अपनी ताकत दिखाने वाले राहुल इन घोटलो पर अकाट्य चुप्पी साधे रहे। महिला सशक्तिकरण पर बोलने वाले राहुल गांधी निर्भया कांड पर आक्रोशित देश के सामने आने से कतराते रहे।
कुल मिलाकर हर संवेदनशील मु़द्धे पर कांग्रेस उपाध्यक्ष की चुप्पी ने देश को यह मानस बनाने के लिए बाध्य कर दिया कि नेहरू गांधी वंश का यह चैथा वारिस अब देश को नेतृत्व देने में सक्षम नही है. और कांग्रेस के नेता अपनी सत्ता बनाएं रखने के लिए राहुल से जोर जबरदस्ती कर राजनीति करा रहे हैं। राहुल जिन सलाहकारों से घिरे है उनका राजनीतिक संघर्ष का कोई अनुभव नही है एक दिग्विजय सिंह को छोड दे तो सबके सब सलाहकार कागजी अनुभव वाले है. कमोवेश सोनिया गांधी की ऐसे ही सलाहकारों से घिरी है. जनार्दन द्विवेदी अहमद पटेल, आॅस्कर फर्नाडिज, मोतीलाल बोरा, गुलामनबी आजाद, अंबिका सोनी जैसे लोग संघर्ष के जरिए राजनीति में उंचे मुकाम पर नही है बल्कि परिवार भक्ति के कारण जमे हैं। ये लोग अच्छे वक्ता, विचारक हो सकते है पर जननेता नही।
कभी कांग्रेस में विद्याचरण शुक्ल, हेमवती नंदन, गनी खान चैधरी, डी.पी.मिश्रा, प्रणव मुखर्जी, नरसिंह राव, उमाकांत दीक्षित, यशवंत चैहान जी.के. भूपनार पटनायक एस. निजलिंगप्पा, सीताराम केसरी सरीखे तपे हुये नेता आलाकमान के आगे पीछे सक्रिय रहते थे जो जनता से सीधे जुडे थे और कांग्रेस को विचारधारा को समझते थे लेकिन तीसरी और चैथी पीढी एन.जी.ओ. टाइप नेताओ से घिरी है. अहमद पटेल, जर्नादन द्विवेदी, जयराम रमेश, मधूसूदन मिस्त्री, गुलामनवी आजाद, मोतीलाल बोरा जैसे सलाहकार कभी अपने अपने राज्यो में जनता तो दूर कांगे्रसियो तक की पसंद नही रहे है लेकिन वे तिक्डम और परिवार भक्ति की दम पर 129 साल पुरानी कांग्रेस को अपने हिसाव से चला रहे हैं।
बताया जाता है कि राहुल के अति विश्वासपात्र मधूसूदन मिस्त्री जो मोदी से बडोदा में अपनी जमानत जप्त करा चुके है ने इस लोकसभा में करीब 300 टिकट अपने प्रभाव से बांटे जिनमें से सिर्फ 23 जीत सके। 2015 संासदो मे से राहुल के नेतृत्व के इस संसद के सिर्फ 21 ही दुबारा सदन में आ सके। ऐसा लगता है कि राहुल को हारे हुये लोगो का शौक है राज बब्वर, संजय निरूपम, मीनाक्षी नटराजन पी.एल.पुनिया, सी.पी.जोशी, मोहन प्रकाश, मधूसूदन मिस्त्री, अजय माकन, की राहुल के यहां हैसियत और इस शौक में मिलान करके देख लिजिए।
असल में राहुल की अपनी कोई स्पष्ट परिभाषित सोच है ही नही। वे एक उथले और संकल्प रहित नेता है जिन्हे एक परिवार की पृष्ठभूमि में जवरिया 129 साल पुरानी एतिहासिक पार्टी पर थोपा जा रहा है और खुद वे भी अनिच्छा से इस चक्कर में फंसे है।
एक आम धारणा है कि किसी करिश्माई या राजपरिवार का प्रभाव तीन पीढी तक ही कायम रहता है. देश भर के राजा रजवाडो क खण्डर हो चुके महल किले इसकी बानगी है. इस लिहाज से कांग्रेस की चैथी पीढी है वर्तमान परिवार का नेतृत्व। इसलिए यदि 59 दिन योग चिंतन कर राहुल लौटे है तब भी उनका चिंतन इस 129 साल पुरानी पार्टी को पुराना वैभव लोटा पायेगा इसमें शुबहा ही है। दस साल यूपीए सरकार की परिस्थितिजन्य उपलब्धि की छोड दे तो मौजूदा वंश नेतृत्व ने कांग्रेस को 1996, 1998, और फिर 2014 में एतिहासिक पराजय की सौगात दी है। आत्मचिंतन कर लौटे राहुल बावा पार्टी को आत्मचिंतन का अधिकार दिला पायेंगे ये देखने वाला पक्ष होगा क्योकिं वर्तमान में देवकांत बरूआ जैसे लोगो की पूरी फौज तैयार है उनके आगे पीछे।
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