विलम्ब के कारण पटरी से उतरता न्याय का रथ

राकेश दुबे@प्रतिदिन। हाशिमपुरा मामले में प्रांतीय सशस्त्र बल (PAC) के 16 अभियुक्त जवानों की रिहाई का आदेश एक बार फिर प्रमाणित करता है कि विलंब किस प्रकार न्याय के रथ को पटरी से उतार देता है। यह कोई पहली ऐसी घटना नहीं है। मगर विडंबना यह है कि कितना भी बड़ा अन्याय क्यों न हो जाए, संबंधित अधिकारियों में कोई हलचल तक नहीं होती।

इस मामले में 19 पुलिस वालों पर हत्या, साक्ष्य मिटाने और आपराधिक षड्यंत्र रचने के आरोप थे। लेकिन मामले के लंबा खिंचने के जो-जो दुष्परिणाम होते हैं, वे सब यहां देखने को मिले हैं। इस मामले के तथ्य एक दम साफ हैं |

एक डॉक्टर प्रभात सिंह की हत्या के तीन दिन बाद हाशिमपुरा में 342 मुस्लिमों को गिरफ्तार करके उनमें से करीब 50 को ट्रक में लादकर गाजियाबाद में गंग नहर के पास लाया गया और उन्हें गोली मारकर नहर में फेंक दिया गया। इनमें से 42 की मौत हो गई, लेकिन छह बच गए। इन्हीं में से एक ने दिल्ली आकर प्रेस को इसकी जानकारी दी। राज्य सरकार ने इस घटना का कोई संज्ञान नहीं लिया और यह मानने से भी इनकार कर दिया कि ऐसी बर्बर हत्याएं हुई हैं। इस कारण से मृतकों के परिजनों को मृत्यु प्रमाण-पत्र तक नहीं दिए|

मीडिया में हंगामे तथा जन-दबाव के कारण राज्य सरकार ने सीबी-सीआईडी से इसकी जांच करवाई, जिसने 1994 में अपनी रिपोर्ट दी। लेकिन जांच रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया। सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे सार्वजानिक करने का निर्देश देने से इनकार कर दिया। बहरहाल, साल 19960 में गाजियाबाद की अदालत में 19 लोगों के विरुद्ध आरोप-पत्र दाखिल किए गए, किंतु किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई।

अदालत ने 23 गैर-जमानती वारंट जारी किए, परंतु अदालत को बताया गया कि ये सभी अभियुक्त फरार हैं। बाद में सूचना का अधिकार कानून के तहत परिजनों ने उन अभियुक्तों के बारे में सूचना मांगी, तो पता लगा कि वे सभी सरकारी सेवा में बने हुए हैं। सितंबर 2002 में उच्चतम न्यायालय के निर्देश पर मामले को गाजियाबाद से दिल्ली स्थानांतरित किया गया परंतुु जैसा कि अक्सर होता है, एक पक्ष मामले को लटकाने के लिए स्थगन पर स्थगन लेता रहा। विशेष लोक अभियोजक की नियुक्ति भी समय पर नहीं की गई। यानी सरकार की ओर से भी अभियुक्तों को बचाने के भरपूर प्रयास किए गए। यदि 28 वर्षों के बाद ‘संशय का लाभ’ देकर अभियुक्तों को रिहा कर दिया जाता है, तो यह हमारे अभियोजन, अन्वेषण के साथ-साथ न्यायपालिका को भी कठघरे में खड़ा करता है।

लेखक श्री राकेश दुबे वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं।
संपर्क  9425022703
rakeshdubeyrsa@gmail.com


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